भारतीय इतिहास के और पुनर्लेखन और शोधन पर हो तेज गति से काम :डॉ. चौहान
तरावड़ी में प्रस्तावित शोध केंद्र व स्मारक दे सकता है इस कार्य को दिशा
सम्राट पृथ्वीराज चौहान की जयंती पर आयोजित हुई विचार गोष्ठी
न्यूज डेक्स संवाददाता
करनाल। भारतीय इतिहास के अनेक पक्ष शोधन और पुनर्लेखन की प्रतीक्षा में है। भारत के वामपंथियों और अनेक स्वार्थी विदेशी तत्वों ने हमारे इतिहास के साथ जमकर छेड़-छाड़ की। आज भी हमारी गौरवशाली दास्तानों के अनेक पन्ने और आयाम ऐसे हैं, जो आज तथ्यों और कल्पनाओं की भूलभुलैया में उलझे हुए महसूस किए जा सकते हैं। सम्राट पृथ्वीराज चौहान की जयंती इस अधूरे पड़े कार्य को पूरा करने का संकल्प लेने का पावन अवसर है। हरियाणा ग्रंथ अकादमी के उपाध्यक्ष एवं निदेशक डॉ. वीरेंद्र सिंह चौहान ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान की जयंती के उपलक्ष्य में अकादमी द्वारा आयोजित विचार गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुए यह टिप्पणी की।
उन्होंने कहा कि अकादमी अध्यक्ष और हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने करनाल के तरावड़ी में सम्राट पृथ्वीराज चौहान की स्मृति में एक भव्य स्मारक एवं शोध केंद्र के निर्माण की घोषणा की हुई है। इस महत्वाकांक्षी परियोजना के सिरे चढ़ने से ना केवल तरावड़ी के एतिहासिक तत्वों का संरक्षण होगा बल्कि समूचे हरियाणा की शौर्य परंपरा पर व्यवस्थित शोध और लेखन का कार्य प्रारंभ हो सकेगा।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के सेवानिवृत्त निदेशक डॉक्टर धर्मवीर शर्मा और क्षत्रीय इतिहास पर कार्य करने वाले बलबीर सिंह चौहान इस विचार गोष्ठी में बतौर वक्ता शामिल रहे। हरियाणा साहित्य अकादमी के पूर्व निदेशक डॉ. पूर्ण मल गोड सहित अनेक विद्वानों की उपस्थिति में ऑनलाइन विचार गोष्ठी में तरावड़ी स्थित सम्राट पृथ्वीराज चौहान के क़िले के अवशेषों को संरक्षित करने के लिए नए सिरे से संगठित प्रयास करने का प्रस्ताव पारित किया गया।
डॉ. वीरेंद्र सिंह चौहान ने कहा जो देश, समाज या संस्कृति अपने इतिहास को भूल जाता है और अपनी विरासत को संभाल कर नहीं रख पाता, ऐसे देश और संस्कृति का लुप्त हो जाना तय है। दुनिया ने ऐसे कई देशों और संस्कृतियों को मिटते देखा है जिन्होंने अपनी सभ्यता की विरासत को अगली पीढ़ी के लिए संजो कर नहीं रखा। विश्व मानचित्र पर ऐसे देशों का अब नामोनिशान भी बाकी नहीं है। श्रेष्ठ और उन्नत संस्कृति को जीवित दिखना भी चाहिए। इसके लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहना अत्यंत आवश्यक है। सनातनी संस्कृति के महान पराक्रमी शासक चक्रवर्ती सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने हरियाणा के तरावड़ी इलाके में कई लड़ाइयां लड़ी। उनके व्यक्तित्व एवं जीवन वृत्त की चर्चा आज और ज्यादा प्रासंगिक हो गयी है।
संगोष्ठी के विषय ‘ऋग्वेद काल से पृथ्वीराज तक हरियाणा : एक विवेचन’ का चयन भी इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर किया गया था ताकि आम लोगों खास कर इतिहास के छात्रों एवं शोधार्थियों को भारतीय जीवन दर्शन एवं अतीत के प्रेरक प्रसंगों की जानकारी मिल सके।। संगोष्ठी के प्रथम सत्र की शुरुआत बलबीर सिंह चौहान के संबोधन से हुई। अपने संबोधन में उन्होंने सम्राट पृथ्वीराज चौहान के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला।
उन्होंने बताया कि 12वीं सदी के अंतिम चरण से ही भारत के कुछ हिस्सों पर मुस्लिमों का वर्चस्व होना शुरू हो गया था और अगले 500 साल के दौरान पूरे देश पर उनका कब्जा हो गया। बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के सेनापति मीर जाफर की गद्दारी के कारण 200 वर्ष तक भारत अंग्रेजों का गुलाम रहा। निरंतर लंबे संघर्षों के पश्चात 1947 ईस्वी में देश आजाद हुआ। आजादी के बाद देश के इतिहास में तथ्यों के साथ छेड़छाड़ शुरू हुई और एक खास एजेंडे के तहत इतिहास का लेखन शुरू हुआ। स्कूली किताबों में आततायी सिकंदर और महा व्यभिचारी अकबर जैसे क्रूर शासकों को महान बताया गया।
कलयुग के महान शासकों में सबसे बड़ा नाम उज्जैन को राजधानी बना कर भारत समेत आसपास के कई अन्य देशों पर राज्य करने वाले सम्राट विक्रमादित्य का है, परंतु भारतीय इतिहास में उन्हें उचित स्थान नहीं मिला। इसी प्रकार सम्राट अमोघवर्ष राष्ट्रकूट, सम्राट मिहिर भोज प्रतिहार और सम्राट विग्रहराज चौहान जैसे कई शासकों ने महानता एवं पराक्रम के कई प्रतिमान स्थापित किए। लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने उन्हें इतिहास से ही बाहर कर दिया। इस कृति में वामपंथी अकेले नहीं थे। उन्होंने कहा सम्राट पृथ्वीराज चौहान सहित पराजित होने पर क्षमा कर दिए गए गौरी ने वर्ष 1191 में फिर भारत पर हमला किया और तराईन के मैदान में उसे फिर हार का मुंह देखना पड़ा। उस समय भी माफी मांग लेने पर उसे छोड़ दिया गया। लेकिन मक्कारी दिखाते हुए वर्ष 1192 में फिर आ धमका। इस बार उसने सम्राट पृथ्वीराज के साथ कुटिल चाल चली। अपनी सेनाएं वापस ले जाने का झांसा देकर उसने रात में सोती हुई क्षत्रिय सेना पर आक्रमण कर युद्ध जीत लिया।
मोहम्मद गोरी की जीत का सिर्फ एक ही कारण था कि उसने धोखे से रात में सोती हुई सेना पर आक्रमण किया, अन्यथा इस बार उसे क्षमादान मिलना मुश्किल था। इस घटना ने इतिहास को यह सीख जरूर दी है कि कुपात्र क्षमा के हकदार नहीं होते। बलबीर चौहान के संबोधन के बाद श्रीमती नीलम त्रिखा ने एक सुंदर कविता का पाठ किया। सम्राट पृथ्वीराज के अद्भुत शौर्य का बखान करते हुए उन्होंने कहा कि शब्दभेदी बाण का ज्ञान जिसे, वह पृथ्वीराज चौहान था।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पूर्व निदेशक डॉ. डी.वी. शर्मा ने सम्राट पृथ्वीराज चौहान के शासनकाल से भी पहले 5000 ईसा पूर्व के भारत के इतिहास पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि भारत को सोने की चिड़िया बनाने में व्यापारियों का बहुत बड़ा योगदान था। भारत से बाहर व्यापार करने के दो ही मार्ग थे। एक समुद्री मार्ग और दूसरा थल मार्ग। इन मार्गों पर व्यापारियों की सुरक्षा करने के लिए रक्षात्मक नीति के तहत सैकड़ों चौकियां चौहान वंश के शासकों ने बनवाई थी। उन्होंने कहा की भारतवर्ष का सारा इतिहास सिकंदर के आक्रमण के बाद से स्थापित किया गया जो हमारी बहुत बड़ी भूल है।
डॉ. डी. वी. शर्मा ने बताया कि सम्राट समुद्रगुप्त ने शत्रु पर पूर्ण विजय प्राप्त करने और क्षमा मांग लेने पर शत्रु को माफ कर देने की नीति बनाई थी। उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए चौहानों ने भी वैदिक नीति के अनुसार क्षमा का सिद्धांत प्रतिपादित किया था। किसी सिद्धांत पर चलते हुए सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्मद गोरी को कई बार क्षमादान दिया जो कि अंततः उनके पराभव का कारण बना। क्षमा के इस सिद्धांत की आलोचना नहीं की जा सकती।
वेधशाला थी दिल्ली की कुतुबमीनार
डॉ धर्मवीर शर्मा ने कहा कि पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि दिल्ली स्थित कुतुब मीनार दरअसल एक बहुत बड़ी वेधशाला थी जिसका निर्माण सम्राट विक्रमादित्य ने कराया था और फतेहपुर सीकरी स्थित बुलंद दरवाजा सिकरवार शासकों ने बनाया था। इसके अकाट्य पुरातात्विक प्रमाण मौजूद हैं। उन्होंने इतिहास के पुनरावलोकन एवं पुनर्लेखन की आवश्यकता पर बल दिया। उन्होंने कहा कि तरावड़ी स्थित सम्राट पृथ्वीराज चौहान के किले का संरक्षण होना चाहिए। उनके प्रति यही हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।