*कल्याण सिंह के राजनीतिक गुरु स्वर्गीय मंगीलाल शर्मा के सुपुत्र कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति एवं एनबीटी (भारत सरकार) के पूर्व चेयरमैन डा.बल्देव भाई शर्मा ने न्यूज डेक्स डाट काम से साझा किए संस्मरण
पहला चुनावः 1962 में तत्कालीन दिग्गज कांग्रेस नेता से महज 500 मतों के अंतर से पराजित हुए थे कल्याण सिंह
दूसरा चुनावः1967 में उसी अतरौली सीट से जीत दर्ज की और फिर अतरौली विधानसभा सीट बन गई अजेय
चुनाव में पहली जीत दर्ज करने के बाद अस्वस्थ मंगीलाल शर्मा को मिलने उनके गांव पलटौनी पहुंचे थे
कच्चा रास्ता होने के कारण गांव के रास्ते में जीप फंसी तो पैदल घर पहुंचे और वहीं जीत का जश्न मनाया
1991 में यूपी का मुख्यमंत्री बनने पर दैनिक आज को साक्षात्कार में “संघ के प्रचारक पंडित मंगीलाल शर्मा मेरे राजनीतिक गुरु थे,उनकी प्रेरणा और सीख से ही मैं इस मुकाम तक पहुंचा हूं ”
न्यूज डेक्स इंडिया
दिल्ली। कल्याण सिंह जी का जाना राजनीति के एक युग का अंत है। भले ही आज यह राजनीति के प्रबंधन कौशल वाले नेताओं का जमाना है। इसके विपरीत जनता की नब्ज को समझने वाले, जमीनी जुड़ाव वाले,आम आदमी के हितों के लिए पुरजोर तरीके से जूझने वाले और सिद्धांतों की प्रतिबद्ध राजनीति करने वाले कल्याण सिंह विरल राजनेता थे। वह स्फुलिंग की तरह असंख्य ह्रदयों में दहकते थे। राम मंदिर आंदोलन ने तो उन्हें भारतीय राजनीति का महानायक बना दिया था और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वे भारत की राष्ट्रवादी राजनीति के प्रतीक बन गए थे। कल्याण सिंह का पूरा जीवन शून्य से शक्ति के निर्माण की गाथा है।
मेरा तो उनके साथ अपने बचपन से बहुत ही निकट का संबंध रहा। हमारे गांव मथुरा जिला के पटलौनी में वे कई बार आए,रहे और बाद में मैं औऱ मेरी मां का उनके घर मढ़ौली गांव में खूब आना जाना और रहना हुआ। मेरे पिता जी पंडित मंगीलाल शर्मा ने अतरौली में संघ के प्रचारक रहते,उन्हें अपने संपर्क में लिया,स्वयं सेवक बनाया,तराशा और एक ध्येयनिष्ठ सेवाव्रती कार्यकर्ता के रुप में सौ टंच खरा सोना बना दिया। बाद में अतरौली क्षेत्र के राजनीतिक समीकरण को समझ कर पंडित मंगी लाल शर्मा ने उन्हें जनसंघ की राजनीति के लिए एक जुझारू नेता के रूप में खड़ा किया। एक अति साधारण किसान परिवार से जूनियर हाई स्कूल में अंग्रेजी अध्यापक की नौकरी और फिर एक करिश्माई नेता के रुप में भारत के राजनैतिक फलक पर छा जाना अचंभित कर देने वाला है।
उनसे आखिरी भेंट चार साल पहले उदयपुर के मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में दीक्षांत समारोह के अवसर पर हुई थी।मुझे वहां मुख्यातिथि के तौर पर दीक्षांत व्याख्यान के लिए बुलाया गया था। मैं तब नेशनल बुक ट्रस्ट (भारत सरकार) का चेयरमैन था। कल्याण सिंह राजस्थान के राज्यपाल और कुलाधिपति के रुप में समारोह के अध्यक्ष थे।हम दोनों साथ साथ लगी कुर्सियों पर बैठे थे,यह भेंट कई वर्षों बाद हुई थी। मिलने पर बहुत प्रसन्न मन से उन्होंने मेरी मां,घर गृहस्थी का हालचाल पूछा और आशीर्वाद दिया और बोले मुझे बहुत खुशी हो रही है कि तुम इतने बड़े आदमी हो गए और बोले, भाई साहब मंगीलाल जी का तुमने खूब नाम रोशन किया है।सुन कर मेरी आंखें छलछला आई,तो मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा खुश रहो। मेरा व्याख्यान खत्म होने पर मैं कुर्सी पर आकर बैठा तो बोले तुम बहुत अच्छा बोलते हो,बिलकुल अपने पिताजी की तरह। मंगीलाल जी बड़े तेजस्वी वक्ता थे। राजनीति में आने पर वें मुझे कमरे में बैठाकर भाषण देना सिखाते थे,जब मैं कहता कि यहां लोग तो हैं ही नहीं,तो कहते मैं बैठा हूं,तूं मान ले कि यहां हजारों आदमी हैं। कहां स्वर ऊपर नीचे करना है,कहां हाथ उठाना है,क्या भाव भंगिमा हो, सब सिखाया उन्होंने। फिर बोले लेकिन बल्देव अब तुम बुढ़ाने लगे हो,तुम्हारे बाल सफेद हो गए सारे और मुस्कुरा दिए। बड़ी मधुर मुस्कान थी उनकी। उन्होंने और चाची (उनकी धर्मपत्नी) ने मुझे सदा अपने बेटे राजू की तरह ही प्यार किया।
मेरे पिता के प्रति उनमें बहुत कृतज्ञ भाव,अपनत्व और आदर था,इतने किस्से हैं कि पूरी किताब लिख जाए। जब कभी लोगों के बीच बैठत तो पिताजी का प्रसंग आने पर बहुत भावुक होकर खूब बातें सुनाते। अतरौली में विश्वंभर गंज का संघ कार्यालय इस तरह के बहुत से प्रसंगों का साक्षी है।विधायक होकर भी कार्यालय में स्टोव पर वे बहुत स्वादिष्ट ताहिरी बनाकर हम लोगों की मांग बना कर खिलाते थे। दाल,चावल और कुछ सब्जियां मिला कर गजब की ताहिरी बनाते थे वे। तहसील प्रचारक बांकेलाल गौड़ और हम लोग इंतजार में रहते थे कि जब कल्याण सिंह जी आएंगे तो ताहिरी बनवाएंगे।
पिताजी का एक किस्सा वे अकसर सुनाते थे कि भाई साहब मंगीलाल जी ने अपने पट्ठे के रुप में तैयार करके मुझे 1962 के विधानसभा चुनाव में उतार दिया और सामने थे,कांग्रेस के नवाब सिंह चौहान जैसे कद्दावर नेता। हम लोग डरते कि कैसे चुनाव लड़ेंगे,रुपए पैसे हैं नहीं,भाई साहब सुबह साईकिल पर निकलते,हर रोज 25 से 30 गांवों का प्रवास करके शाम को लौटते तो कुर्ते की जेबों को खाली करते,उनके पास तौलिए के कपड़े के दो थैली टाइप थैले रहते थे। सब खाली करने पर एक,दो और पांच के नोटों का ढेर लग जाता। हम लोग अचंभे में पड़ जाते कि रोज मंगीलाल जी इतने रुपए लाते कहां से हैं। दरअसल गांव गांव,कसबे कसबे में उन्होंने संघ का बड़ा नेटवर्क खड़ा किया था। लोग उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार रहते। लोग बताते थे कि मंगीलाल जी गांव गांव यही कहते थे कि पैसे की कमी से कल्याण सिंह चुनाव ना हार जाए। इसलिए जो जितना कर सकता है,पैसा जुटाओ। मंगीलाल जी के प्रति लोगों में बड़ा श्रद्धाभाव था। यह मैने उस चुनाव में देखा। उनकी कर्मठता,वक्तत्कला व्यापक जनसंपर्क और संघनिष्ठ जीवन का आदर्श ही था कि मैं अपना चुनाव मात्र 500 वोटों से हारा,पर मैं नेता बन चुका था। यह भाई साहब मंगीलालजी का ही दम था।
वे 1967 में अपने दूसरे चुनाव में ही विजयी होकर विधायक बन गए और फिर अतरौली अजेय हो गई। पिताजी चुनाव में आखिर में अस्वस्थ हो जाने से गांव आ गए,नतीजा आने पर अतरौली में विजय जुलूस निकालकर कल्याण सिंह आधी रात को हमारे गांव पटलौनी (मथुरा) पहुंचे। पिताजी का आशीर्वाद लेने। मैं छोटा था तब 10-11 साल का। मुझे वह वाक्या याद है।झरोठा से गांव तक दो किलोमीटर का कच्चा रास्ता था,जीप फंस गई तो पैदल रात में हमारे घर वे पहुंचे थे। पिताजी का आशीर्वाद लिया और उनके गले लगकर,आंखे बरसने लगी। रात में ही गांव से लोग फावड़े लेकर गए और जीप निकाल कर लाए और रात में ही हमारे घर में जीत का जश्न मना। मेरे पिता जी का कुछ महीनें बाद ही निधन हो गया,तो गांव आने पर उन्होंने मेरे बाबा पंडित फूल चंद शर्मा से कहा कि बल्देव और बहनजी की चिंता मैं करूंगा,फिर मैं और मां अतरौली आ गए। मां वहां अध्यापिका रहीं और अतरौली-अलीगढ़ में ही मेरी आगे की पढ़ाई हुई। मेरे पिताजी का तप मानों कल्याण सिंह जी में रुपांतरित हो गया था। वर्ष 1991 में मुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने देश के बड़े हिंदी दैनिक अखबार दैनिक आज को साक्षात्कार में कहा था “संघ के प्रचारक पंडित मंगीलाल शर्मा मेरे राजनीतिक गुरु थे,उनकी प्रेरणा और सीख से ही मैं इस मुकाम तक पहुंचा हूं ” कल्याण सिंह जी का जीवन वास्तव में एक किंवदंती बन गया।
राजनीति में उनका चुनावी सांख्यकीय अद्भुत था,उनका जैसा भावपूर्ण और स्फूर्ति भर देने वाला वक्ता अटल बिहारी बाजपेयी के अलावा शायद ही कोई और हो। सच्चे अर्थों में वे जननायक थे। अभी जून में अलीगढ़ जाने पर उनके बेटे राजवीर सिंह (राजू भैय्या) से भेंट हुई तो उनकी बातें कर मन भावविभोर हो गया।बहुत कम लोगों को पता है कि कल्याण सिंह जी बहुत श्रेष्ठ कवि थे। उन्होंने कितने ही गीत लिखे और गाए। दिव्य ध्येय की ओर तपस्वी जीवन भर अविचल चलता है…।यह उनका बड़ा प्रसिद्ध गीत है। संघ की शाखाओं में खूब गाया जाता रहा है। उनका स्वयं का अनुभूत सत्य है यह गीत। मानों उन्होंने अपने ध्येयनिष्ठ जीवन के तप को शब्दों में ढाल दिया। उनका जाना न जाने कितना गहरा सूनापन छोड़ गया,व्यक्तिगत रुप से हमारे लिए तो है ही,पर भारत की राजनीति में दबे पिछड़े वंचितों के लिए सत्ता स्वार्थों से परे संघर्ष करने वाला पुरोधा चला गया। मेरे लिए तो मानों एक बार फिर सिर से अभिभावक की छत्र छाया उठ गई,लेकिन उनकी प्रेरणा हम सबको शक्ति देती रहेगी।
पुरानी यादों को ताजा करती ये तस्वीर…