आर्यन/न्यूज डेस्क संवाददाता
कुरुक्षेत्र, २६ जुलाई। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा रविवार को तुलसी साहित्य में भारतीय संस्कृति के दर्शन विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। संस्थान द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला की श्रृंखला में यह पांचवीं कड़ी थी। व्याख्यान में प्रो. चंदन कुमार चौबे, सदस्य केंद्रीय सलाहकार बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार एवं प्रोफेसर, हिंदी-विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय रहे। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेंद्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए बताया कि प्रत्येक मंगलवार को प्रातः ११ बजे से १२ बजे तक संस्कृति बोध से जुड़े किसी न किसी विषय में व्याख्यान का आयोजन संस्थान के यूट्यूब चैनल वीबीएसएसएस केकेआर पर प्रसारण होता है। उन्होंने सभी श्रोताओं का स्वागत करते हुए कहा कि भारत और उसकी अतुल्य संस्कृति के उत्पादित ग्रंथ को प्रेरणा देने के लिए जिनका अध्ययन कर हम भारत और उसकी संस्कृति के वशीभूत होते हैंं, ऐसी रचना जिस महान साहित्यकार ने की, ऐसे गोस्वामी तुलसीदास जी का आज जन्म दिवस है। उन्होंने बताया कि जब से यह श्रृंखला प्रारंभ हुई है, हजारों की संख्या में संस्कृति प्रेमियों एवं शिक्षाविदों के सुझाव प्राप्त हो रहे हैं और वे संस्थान से जुड़ रहे हैं। तत्पश्चात हिंदू कन्या महाविद्यालय जींद में सहायक प्रवक्ता डॉ. क्यूटी बठला ने तू दयालु दीन हों… गीत प्रस्तुत किया।
मुख्य वक्ता प्रो. चंदन कुमार चौबे ने कहा कि गोस्वामी तुलसीदास हिंदी समाज के कवि हैं। हिंदी समाज अपनी जय-पराजय, जीवन मरण, यश-अपयश को उनकी कविताओं में देखता है। उनकी कविताएं जीवन का एक ऐसा सत्य बताती हैं जहां आस्थावान भारतीय मन अपनी जागतिकता के समाधान ढूंढ लेता है। तुलसीदास के काव्य इसलिए नहीं पढ़े जाते कि वे किसी संगठन, विचार और व्यक्ति के लिए राजनैतिक रूप से ठीक हैं या नहीं बल्कि इसलिए पढ़े जाते हैं कि वे भारतीय जीवन संदर्भ हैं। कविता कैसे बंध में बदल जाती है। रचना कैसे पवित्रता में चली जाती है, यह जानना हो तो तुलसीदास से शुरू कर सकते हैं।
उन्होंने गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस की चौपाई एवं मंगलाचरण सुनाते हुए कहा कि तुलसी की पूरी दृष्टि, उनका भावबोध भारतीयता की परंपरा को एक दायरे के रूप में स्वीकारता है। उन्होंने ऋग्वेद संहिता का सूत्र वाक्य सुनाते हुए कहा कि सत्य एक है। विद्वानजन इसकी विभिन्न व्याख्याएं करते हैं। गोस्वामी तुलसीदास इसी अर्थ में भारतीय प्रज्ञा के प्रतिनिधि कवि ठहरते हैं। उनकी रचनात्मकता आस्था का लोकतांत्रिक पाठ है। उन्होंने कहा कि वे एक पांथिक कवि नहीं हैं। भिन्न-भिन्न मत-मतांतरों का समावेशी चरित्र जो भारतीयता का दाय है, तुलसीदास की रचनात्मकता का उत्कर्ष है। उन्होंने कहा कि तुलसी की भक्ति और उनके राम, उनके नायक राम जागतिकता से निर्मित हैं। गोस्वामी तुलसीदास मर्यादा और विवेक का संस्कार नायकत्व के रूप में प्रस्तावित करते हैं। यह कठिन कार्य है। मर्यादा और विवेक के संस्कार से नायकत्व रचना भारतीय मन ही कर सकता है।
उन्होंने कहा कि तुलसी के राम और उनका राम राज्य इसी विवेक मंगल और मर्यादा की निर्मिति है। राम राज्य कोई सैद्धांतिक राज्य नहीं है, वह जागतिक समस्याओं का आदर्श समाधान है। उन्होंने कहा कि भारतीय समाज, समाज की केंद्रीयता में विकसित होता हुआ अर्थबोध है। भारतीयता समाज केंद्रीय का नाम है। एक सभ्यता के रूप में हम सत्ता केन्द्रित समाज कभी नहीं हुए। हमारा एकत्व, हमारी आराधना पद्धति, हमारे शैक्षणिक संस्थान समाज केन्द्रीयता के चिह्न हैं। तुलसी का साहित्य भारतीय मूल्य बोध की समाज केंद्रीयता का प्रामाणिक पाठ है। व्याख्यान के अंत में संस्थान के निदेशक एवं व्याख्यानमाला संयोजक डॉ. रामेंद्र सिंह ने सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और कल्याण मंत्र के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।
विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा तुलसी साहित्य में भारतीय संस्कृति के दर्शन विषय पर व्याख्यान
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