ऐसी शिक्षा चाहिए जो व्यक्ति में संस्कार उत्पन्न कर सके: डॉ. रवि प्रकाश आर्य
आज का वर्तमान राजनेताओं के द्वारा नहीं अपितु राष्ट्र नेताओं के द्वारा निर्मित हो रहा है: डॉ. विजय दत्त शर्मा
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 7 सितम्बर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘शिक्षा: आधुनिक संदर्भ’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। संस्थान द्वारा आयोजित बारहवें व्याख्यान में इंडियन फाउंडेशन फॉर वैदिक साइंस के निदेशक डॉ. रवि प्रकाश आर्य एवं एन.आई.टी. में डिपार्टमेंट ऑफ कंप्यूटर एप्लीकेशन के विभागाध्यक्ष डॉ. आशुतोष कुमार सिंह मुख्य वक्ता रहे।
व्याख्यान की अध्यक्षता हरियाणा ग्रन्थ अकादमी के पूर्व निदेशक प्रोफेसर विजय दत्त शर्मा ने की। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथियों का परिचय कराया एवं विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि शिक्षक माने आचार्य, वही आदर्श विद्यार्थी की संकल्पना को साकार कर सकता है। आचार्य का प्रमुख कार्य है बालक के हृदय में जिज्ञासा विकसित करना। शरणागति में आए बालक की जिज्ञासा जैसे ही प्रबल हो, उसी समय उपदेश सार्थक होगा।
उन्होेंने कहा कि आचार्य छात्र की क्षमताओं को पहचान कर, आत्मीय प्रेम प्रगट करते हुए बालक के अन्तःकरण में प्रवेश करें और उसकी जिज्ञासा जगाएं। उसकी जानने की इच्छा तथा संकल्प जागृत करें। हमारी सभी परम्पराओं, सांस्कृतिक मान्यताओं का आधार विज्ञान है। किशोरों को तर्कपूर्वक तत्त्व का बोध तथा सत्य का शोध करने के लिए प्रोत्साहन करना चाहिए।
उन्होंने कहा कि विद्या भारती के विद्यालयों में शिक्षक के लिये आचार्य शब्द का प्रयोग किया जाता है अर्थात् जो अपने जीवन से, व्यवहार से, आचरण और वाणी से बालकों को सिखाता है। हमारा आचार्य मास्टर नहीं, वह ब्रह्मा के समान शिल्पी एवं सृजनकर्ता है। वह सुगन्ध बांटने वाला चतुरानन चाहिए।
वक्ता डॉ. रवि प्रकाश आर्य ने कहा कि संस्कृति केवल गायन, नृत्य वादन से संबंधित नहीं है। जो भी हमारी विचारधारा है, दर्शन है, जिस प्रकार का हमारा चिंतन है, वह संस्कृति के अंतर्गत आता है। वस्तुतः संस्कृति शब्द संस्कार शब्द से बनता है। जब व्यक्ति का संस्कार समूह सामूहिक व्यक्तियों के संस्कार के अंदर परिणित होता है तो इसको संस्कृति कहा जाता हैं। भारत की संस्कृति हमारे दर्शन, हमारी विचारधारा से प्रभावित है। दुनिया के अनेक देशों में अलग-अलग संस्कृतियां रही हैं। यह संस्कृति और संस्कार इनको देने वाला शिक्षक है और उसके माध्यम को शिक्षा कहते हैं।
उन्होंने कहा कि शिक्षा वह है जिससे मनुष्य को सभ्यता प्राप्त हो, जिससे उसके संस्कार अच्छे बनाए जा सकें और उसे जितेन्द्रिय बनाया जा सके। शिक्षा का उद्देश्य है कि व्यक्ति को अच्छे संस्कार प्रदान करें ताकि वह अच्छा व्यक्ति बन सके। उन्होंने कहा कि हमें ऐसी शिक्षा चाहिए जो व्यक्ति में संस्कारों को उत्पन्न कर सके। प्राचीन काल में शिक्षा समाज के माध्यम से दी जाती थी। लेकिन आधुनिक शिक्षा राज्य के आधीन है और एक पाठ्यक्रम बना दिया जाता है और शिक्षक केवल माध्यम है उस पाठ्यक्रम को विद्यार्थी तक पहुंचाने का। ऐसी स्थिति में यदि हम शिक्षा के द्वारा राष्ट्र निर्माण चाहते हैं तो शिक्षा में राष्ट्र निर्माण के तत्वों को संयोजित करना होगा। ऐसे पाठ्यक्रम बनाने होंगे जिसमें भारतीय दर्शन की, भारतीय ज्ञान की पराकाष्ठा से उसे अवगत कराया जा सके।
वक्ता डॉ. आशुतोष कुमार सिंह ने ‘विद्यालयी शिक्षा के संदर्भ में राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ पर बोलते हुए कहा कि इस शिक्षा नीति का लक्ष्य प्रत्येक बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना है। कक्षा 6 से वोकेशनल कोर्स करवाए जाने पर उन्होंने कहा कि इच्छुक छात्रों को छठी कक्षा के बाद से ही इंटर्नशिप करवाई जाएगी। इसके अलावा संगीत और आर्ट्स को बढ़ावा दिया जाएगा। बच्चे पर पुस्तकों का बोझ कम किया जाएगा। नई शिक्षा नीति में किसी भी विषय में कुछ करके दिखाने की व्यवस्था की गई है। ऐसे में छात्र केवल पुस्तकीय शिक्षा पर ही निर्भर नहीं रहेगा वरन् प्रायोगिक रूप से भी उसे कुछ करके दिखाना होगा। देशभर के बच्चों को सरकार द्वारा हैल्थ कार्ड जारी किया जाएगा, जिससे उसके स्वास्थ्य के बारे में पता लगाया जा सकेगा। जो बच्चे कक्षा 5 से नीचे के हैं उन्हें बाल वाटिका में भेजे जाने का भी प्रावधान किया गया है। उन्होंने कहा कि इतिहास पर, धर्म पर, देशभक्ति पर, नैतिक शिक्षा पर पूरी तरह से हर विद्यालय को सरकार की गाइडलाइन को मानना अनिवार्य होगा। उन्होंने कहा कि कक्षा 1 से 12 तक छात्र ने किस प्रकार की शिक्षा ली है, वही उसके जीवन को आगे बढ़ाएगी।
व्याख्यान की अध्यक्षता करते हुए प्रोफेसर विजय दत्त शर्मा ने कहा कि आज वर्तमान की जिस देहरी पर हम खड़े हैं वह राजनेताओं के द्वारा नहीं अपितु राष्ट्र नेताओं के द्वारा निर्मित हो रही है। इसलिए भारतवर्ष को जिस स्थिति से वे जोड़ते रहे थे, उसी के विषय में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की पंक्तियां उद्धृत करते हुए कहा कि ‘‘जो है वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है, जितना महत्वपूर्ण जो होना चाहिए।’’ 1947 भारत का परिवर्तन बिन्दु है लेकिन वह परिवर्तन नहीं आ पाया। आज वह समय आ गया है जब नई शिक्षा नीति के माध्यम से देश को एक नई दिशा दी जाए। उन्होंने कहा कि गुरु, शिक्षक और टीचर तीनों के शब्द ही अलग नहीं अपितु अवधारणाएं भी अलग-अलग हैं। इसलिए आज हम शिक्षक दिवस मना रहे हैं। ना ही गुरु दिवस और ना ही टीचर्स डे मना रहे हैं। उन्होेंने शिक्षकत्व जीवन के अपने मर्मस्पर्शी संस्मरण भी बताए।
डॉ. रामेन्द्र सिंह ने व्याख्यान में अतिथिगण एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं तथा व्याख्यान को समाज तक पहुंचाने में मीडिया का भी धन्यवाद किया और सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।