न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र। विजय का प्रतीक विजयदशमी भगवान श्री राम की लंका के अधिपति रावण पर विजय का पर्व है यह सत्य, ज्ञान तथा आदिशक्ति मां नवदुर्गा की उपासना का पर्व है। वैदिक काल से भारतीय संस्कृति में विजयदशमी का पर्व वीरता का पूजक एवं शौर्य की उपासक रहा है। यह विचार मातृभूमि सेवा मिशन के संस्थापक डॉ. श्रीप्रकाश मिश्र ने भारतीय संस्कृति के अति पावन पर्व विजयदशमी के अवसर पर मिशन द्वारा संचालित मातृभूमि शिक्षा मंदिर के मध्य आयोजित पर्व संवाद कार्यक्रम में व्यक्त किए। कार्यक्रम का शुभारंभ बच्चो द्वारा वैदिक मंत्रों के गायन से हुआ। कार्यक्रम के अतिविशिष्ट अतिथि समाजसेवी चरणजीत सिंह सुनारिया द्वारा मातृभूमि शिक्षा मंदिर के विद्यार्थियों को उपहार भेंट किए गए।
डॉ. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि भारतीय संस्कृति कि गाथा गौरवशाली है। भारतीय सनातन संस्कृति भारत राष्ट्र के अलावा संपूर्ण में भी इसकी गुंज सुनाई देती है, इसीलिए भारत को विश्व गुरु के रूप में माना है। भारत के प्रमुख पर्वों में से दशहरा को विजयादशमी के रुप में मनाया जाता है। दशहरा केवल त्योहार ही नही बल्कि इसे कई बातों का प्रतीक भी माना जाता है। दशहरे में रावण के दस सिर काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा, आलस्य, झूठ, अहंकार, मद और चोरी को दस पापों का सूचक माना जाता है। इन सभी पापों से हम किसी न किसी रूप में मुक्ति चाहते हैं और इस आशा में प्रतिवर्ष रावण का पुतला बड़े से बड़ा बना कर जलाते हैं ताकि हमारी सारी बुराइयाँ भी इस पुतले के साथ अग्नि में भष्म हो जाये। परंतु इसके विपरित समाज में दिनों-दिन बुराइयाँ व असमानताएँ भी रावण के पुतले कि तरह निरन्तर बड़ी होती चली जा रही है। आज हम इन पर्वों पर केवल परंपरा के रुप में ही मनाते हैं। इन त्योहारों से मिले संकेत और संदेशों को हम अपने जीवन में उतारते नहीं हैं। भारतीय संस्कृति में विजयादशमी का पर्व साहस, पराक्रम एवं संकल्प का महापर्व है।
डॉ. मिश्र ने कहा कि विजयदशमी का पर्व हमें यह संदेश देता है कि अन्याय और अधर्म का विनाश तो हर हाल में सुनिश्चित है। फिर चाहे कोई मनुष्य दुनिया भर की शक्तियों और प्राप्तियों से संपन्न ही क्यों न हो। अगर मनुष्य का आचरण सामाजिक गरिमा या किसी भी व्यक्ति विशेष के प्रति गलत होता है तो उसका विनाश भी तय है। दशहरा यानी न्याय, नैतिकता, सत्यता, शक्ति और विजय का पर्व है लेकिन आज हम इन सभी बातों को भूलकर अपने त्योहारों को सिर्फ मनोरंजन के लिए सीमित रखते हैं। हर युग में अन्याय, अहंकार, अत्याचार, असमानता, छुआछूत और आतंकवाद जैसे कलंक रूपी असुर रहे हैं। इसका हमारा इतिहास गवाह है त्रेता युग में रावण, मेघनाथ, ताड़का आदि द्वापर युग में कंस, पूतना, दुर्योधन, शकुनी आदि और आज के इस कलियुग में क्षेत्रवाद, जातिवाद, आंतक, भय, अन्याय, शोषण और अलवाद जैसे असुर समाज में पनपते जा रहे हैं।
डॉ. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भगवान श्री राम और रावण दोंनो को ही भगवान शिव का उपासक होने का उल्लेख किया है। लेकिन समाज में दोंनो की व्याख्या अलग-अलग होती है। क्योंकि रावण की साधना और भक्ति स्वार्थ, मान, सत्ता, भोग-विलास और समाज को दुख देने हेतु थी जबकि श्री राम की साधना परोपकार, न्याय, मर्यादा, शांति, सत्य और समाज कल्याण के उद्देश्य के लिए थी। हमारा देश भारत युवाओं का देश है और युवा ही भारत का भविष्य हैं, अगर युवा पीढ़ी अपनी सोच में बदलाव लाएगी तो समाज में बुराई का असुर रावण पूर्ण रूप से समाप्त हो जायेगा। दशहरे के त्योहार के प्रति आदर, सम्मान व प्यार को रखते हुए, हम अपने जीवन को अच्छा बनाने कि ओर अग्रसर करेंगे। हमें स्वंय को बदलना है किसी ओर को नहीं क्योकि हमारे अंदर आया बदलाव ही हमारे अन्दर का रावण का अंत करना है।