हमें हिन्दी भाषा का गौरव अनुभव करना चाहिए: अवनीश भटनागर
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 12 सितंबर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘हिन्दी साहित्य का भारतीय संस्कृति के लोकव्यापीकरण में योगदान’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। संस्थान द्वारा आयोजित तेरहवें व्याख्यान में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान की निदेशक प्रोफेसर बीना शर्मा मुख्य-वक्ता रहीं। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए कहा कि डॉ. बीना शर्मा जी का 33 वर्ष का लम्बा शिक्षण अनुभव है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा में मुख्यालय होने के साथ-साथ उनका हैदराबाद, गुवाहाटी और भुवनेश्वर केन्द्र भी रहा है। डॉ. बीना जी भारतीय शिक्षण मंडल, ब्रज प्रान्त की प्रकाशन प्रमुख और राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्या हैं। कर्मठ और शिक्षण के प्रति बेहद संवेदनशील होने के साथ सामाजिक कार्यों में भी उनकी सहभागिता रहती है। डॉ. बीना को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा कन्या शिक्षा और सुरक्षा के अंतर्गत ‘मलाला पुरस्कार’ सहित अनेक सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया गया है।
संस्थान के सचिव अवनीश भटनागर ने विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि वास्तव में किसी भी देश के लोकतंत्र में यदि उस देश की राजभाषा का हमें दिवस मनाना पड़े तो यह कहीं न कहीं चिंता की बात है। यह हम सब लोगों के लिए विचार करने की आवश्यकता है। उन्होंने वर्ष 2011 की जनगणना का उल्लेख करते हुए कहा कि 19569 लोक बोलियां जिस देश में हों, पूरी तरह से देश के विचारों की अभिव्यक्ति करने में सक्षम, ऐसी भाषाएं जिनको बोलने, लिखने-पढ़ने वालों की संख्या 10 हजार से अधिक है, ऐसी भाषाओं की संख्या 121 है। जिस देश के सविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं का समावेश, क्या उस देश को भी अपने देश को आपस में जोड़ने वाली भाषा को प्रोत्साहन देने के लिए दिवस की आवश्यकता है? लोक के साथ हमने इस भाषा को नहीं जुड़ा रहने दिया। राष्ट्रभाषा, राजभाषा होने के बाद भी हिन्दी को हमने अपने मानस में स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा कि केवल हिन्दी दिवस या पखवाड़ा मनाना पर्याप्त नहीं है, वास्तव में हमें हिन्दी भाषा का गौरव अनुभव करना चाहिए। प्रत्येक भाषा की अपनी संस्कृति है और उस भाषा को साहित्य के माध्यम से संस्कृति का संवाहक होने का जो गौरव प्राप्त होता है, उसे देखकर लगता है कि हिन्दी साहित्य और समृद्ध लोकभाषा साहित्य को यदि हमने भारत की ज्ञान परंपरा के विस्तार की दृष्टि से बड़े सशक्त माध्यम के रूप में स्वीकार किया तो हम दिनोंदिन अपने इस ज्ञान के भंडार को समृद्ध कर सकेंगे।
डॉ. बीना शर्मा ने कहा कि संस्कृति का तात्पर्य ही है मनुष्य को श्रेष्ठ मानवीय गुणों से संस्कारित करना। संस्कृति को समाज के मध्य ले जाने का कार्य केवल साहित्य का ही है, फिर चाहे वह शिष्ट साहित्य हो अथवा लोक। साहित्य भाषा के द्वारा भाषा के माध्यम से रचा जाता है। भाषा समाज के बीच विकसित होती है और प्रत्येक समाज की एक विशिष्ट संस्कृति और जीवन शैली होती है। उसकी सांस्कृतिक मान्यताएं भाषा में अनिवार्यता परिभाषित करती हैं। समाज की सांस्कृतिक मान्यताएं भाषा द्वारा अभिव्यक्ति पाती हैं। भाषा से संस्कृति और साहित्य दोनों जुड़े हुए हैं। संस्कृति का क्षेत्रफल व्यापक है इसलिए उसके शिक्षण के लिए आम व्यक्ति क्या करे कि हमारी संस्कृति समाज के मध्य जाए, इसके लिए हम साहित्य को आधार बना लेते हैं। संस्कृति को समाज के मध्य ले जाने का कार्य साहित्य का ही है फिर वह लोक साहित्य के रूप में जाना जाए अथवा शिष्ट साहित्य के रूप में। यह लोक ही है जो कहावतों और मुहावरों के माध्यम से आमजन को तृप्ति और संतुष्टि देता है। उन्होंने कहा कि साहित्य जिसे समाज का दर्पण कहा जाता है, किसी भी समाज की सुरुचि की पहचान है। हम साहित्य पढ़कर जान लेते हैं कि उस समाज की, उस देश की संस्कृति क्या रही होगी। साहित्य सांस्कृतिक प्रबोध जगाता है, रचता है। संस्कृति को उसके स्थूल रूप में नहीं देखा जा सकता और न वह एक पक्षीय होती है। समाज की अनेक धाराएं संस्कृति के सागर में आकर एक हो जाती हैं। संस्कृति की विविधताएं मनुष्य बनकर एक हो जाती हैं। इस एकत्व की मनुष्यता को रचने का काम साहित्य का है।
उन्होंने कहा कि किसी भी देश की पहचान उसकी संस्कृति है। संस्कृति का मूल तत्व हमारी विचार शक्ति है जो सभ्य और असभ्य में भेद दर्शाती है। साहित्य में जब हम भाषा, शैली, शिल्प, शब्द, विन्यास, संरचना आदि को देखते हैं तो वह भाषा का भौतिक रूप होती है। रचनाकार जब उसमें विचार रचता है तो अपनी कल्पना से संवेदन, सौंदर्य, प्रकृति और समाज के समस्त लोकाचारों को व्यक्त करता है तब साहित्य सृजन से संस्कृति सृजन की ओर चलता है और संस्कृति सृजन करता है। उन्होंने कहा कि साहित्य का सांस्कृतिक पक्ष जन, जमीन, उनकी कर्म और चिंतन प्रणाली से जुड़ा रहता है। हम जब भी कुछ नया रचते हैं तो उसे लोक स्वीकृति मिल जाती है तो लोक स्मृति में स्थापित हो जाती है। लोक स्मृति में स्थापित होना ही संस्कृति निर्माण की प्रक्रिया है। उन्होंने कहा कि जो साहित्य अपनी लोक संस्कृति का संरक्षण करे, अपने लोक जीवन से आस्थाबद्ध रहे, वह उसका सांस्कृतिक पक्ष है। व्याख्यान के अंत में संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।
संस्कृति को समाज के मध्य ले जाने का कार्य साहित्य का: डॉ. बीना शर्मा
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