न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र। महर्षि दयानंद सरस्वती वेदों के विद्वान, संन्यासी, योगी, आध्यात्मिक नेता, धार्मिक सुधारक, भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थानवादी पुरोधा, राष्ट्रभक्त, दार्शनिक-शिक्षक, समाज सुधारक, क्रांतिकारी विचारक, शिक्षाविद्, भारत के शैक्षिक पुनर्जागरण की आधारशिला, कर्म योगी थे। महर्षि दयानंद सरस्वती उन महान संतों में अग्रणी हैं, जिन्होंने देश में प्रचलित अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, विभिन्न प्रकार के आडंबरों व सभी अमानवीय आचरणों का विरोध किया । यह विचार मातृभूमि सेवा मिशन द्वारा आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती की जयंती के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम में मातृभूमि सेवा मिशन के संस्थापक डॉ. श्रीप्रकाश मिश्र ने व्यक्त किये। मातृभूमि सेवा मिशन के युवा इकाई के सदस्यों ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के चित्र पर आदरंजलि अर्पित की। सभी युवाओं ने राष्ट्र सेवा का संकल्प लिया।
डॉ. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार जीवन में शिक्षा का अत्यंत महत्त्व है, शिक्षा के बिना मनुष्य केवल नाम का आदमी होता है। यह मनुष्य का कर्त्तव्य है कि वह शिक्षा प्राप्त करे, सदाचारी बने, द्वेष से मुक्त हो और देश, धर्म तथा समाज के लिए कार्य करे। महर्षि दयानंद सरस्वती के विचार में शिक्षा मनुष्य को ज्ञान, संस्कृति, धार्मिकता, आत्मनियंत्रण, नैतिक मूल्यों और धारणीय गुणों को प्राप्त करने में मदद करती है और मनुष्य में विद्यमान अज्ञानता, कुटिलता तथा बुरी आदतों को समाप्त करती है। स्वामी दयानंद इस बात से भली-भांति परिचित थे कि अगर भारत जैसे बड़े देश को परिवर्तित करना है तो बचपन को प्रेरित तथा परिवर्तित करना होगा। उन्होंने स्पष्ट रूप से बच्चों की नैतिक शिक्षा पर बल देते हुए उनकी शिक्षा के साधन निर्धारित किए। नैतिक शिक्षा में एक तरफ सद्गुणों का विकास तथा प्रोत्साहन और दूसरी ओर विकारों का निराकरण शामिल है। उनका स्पष्ट मत था कि माता-पिता और शिक्षकों को स्वयं उच्च आदर्श प्रस्तुत करना चाहिए।
डॉ. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा कि महर्षि दयानंद सरस्वती ने समाज में विद्यमान सभी अंधविश्वासों और अवैज्ञानिक मतों के शोधन का प्रयास किया। जहां एक ओर वेदों के प्रति उनका पूर्ण सम्मान था और उनकी दिव्यता को स्वामी जी स्वीकारते थे वहीं दूसरी ओर उन्होंने मूर्ति-पूजा, जाति-भेद आदि को तर्कसंगत न मानते हुए परिष्कार का आह्वान किया। महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में शिक्षार्थी के न केवल चरित्र निर्माण पर विशेष बल दिया है बल्कि उसके जीवन के समग्र विकास को केंद्र में रखते हुए एक विशद पाठ्यक्रम की रुपरेखा प्रस्तुत की है जिससे यह स्पष्ट करता है कि स्वामी दयानंद का उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से शिक्षार्थी को मनुष्य की पूर्णता का साक्षात्कार कराना है। शिक्षार्थी के व्यक्तित्व के समग्र विकास को ध्यान रखते हुए प्रस्तुत विस्तृत पाठ्यक्रम कठोर अनुशासन और संयमित जीवन-शैली की अपेक्षा करता है और वर्तमान शिक्षा प्रणाली के दोषों के निराकरण का मार्गदर्शन करने में समर्थ प्रतीत होता है। हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता देने तथा हिंदू धर्म के उत्थान व इसके स्वाभिमान को जगाने हेतु स्वामी जी के महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारतीय जनमानस सदैव उनका ऋणी रहेगा।