‘‘आत्मनिर्भर भारत’’ विषय पर व्याख्यान आयोजित
कुरुक्षेत्र, 26 सितम्बर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘आत्मनिर्भर भारत’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में सुविख्यात गांधीवादी विचारक एवं राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय के पूर्व उप निदेशक डॉ. अनिल दत्त मिश्रा मुख्य वक्ता रहे। संस्थान के सचिव अवनीश भटनागर का सान्निध्य रहा। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए प्रस्तावना के रूप में कहा कि देश का आत्मनिर्भर होना भी एक प्रक्रिया है।
इस प्रक्रिया का पहला कदम आत्मविश्वास होगा। हमारा देश तभी आत्मनिर्भर हो सकता है जब हम भारतीय मूल्य आधरित जीवन शैली को विकसित करें। हमारे देश की आत्मा गावों में बसती है गावों को समृद्ध और विकसित करने से हमारी नींव पक्की होगी। कृषि तथा अन्य ग्रामोद्योग जब फलने-फूलने लगेंगे तब निश्चित ही गांव समृद्ध होने लगेंगे।
भारत को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अनुसंधानकर्ताओं को कालानुरूप बदलती आवश्यकताओं के अनुसार अनुसंधान करने होंगे, उन अनुसंधानों से निर्मित वस्तुओं को व्यापारियों द्वारा बाजार में उतारना होगा, भारतीय समाज को ग्राहक के रूप में उसे खरीदना होगा और अंततः विदेशी बाजार में भी इसका विक्रय हो ऐसी व्यवस्था करनी होगी। जब यह पूरी प्रक्रिया भारत से शुरू होकर विदेशी बाजारों तक पहुंचेगी तभी भारतीय लोगों की आवश्यकता पूर्ण होगी, विदेशी धन भारत में आएगा और भारत सही मायनों में आत्मनिर्भर हो सकेगा। नागौर से मेघराज राव ने ‘‘साधना का दीप ले निष्कम्प हाथों, बढ़ रहे निज ध्येय पथ साधक निरन्तर’’ गीत प्रस्तुत किया।
डॉ. अनिल दत्त मिश्रा ने अपने व्याख्यान में कहा कि दीनदयाल उपाध्याय और महात्मा गांधी भारत माता के कल्याण और नैतिकता की पराकाष्ठा की बात करते हैं। दोनों का मूल मंत्र था भारत और भारतीयों को बदलना। दोनों ने स्वदेशी और स्वावलंबन पर बल दिया। दोनों का विचार था कि व्यक्ति को बदलकर ही समाज और राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं। गांधी और उपाध्याय ने कभी भी भारतीयता को नहीं छोड़ा। आज हमें दीनदयाल जी के विचारों पर चलने की आवश्यकता है। गांधी और दीनदयाल जी के विचारों में मूलतः अंतर नहीं है। दीनदयाल ऐसी महान विभूति हैं जिनके दर्शन, मनन, चिंतन को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करना चाहिए। दीनदयाल उपाध्याय ने व्यक्ति, समाज और राष्ट्र के विकास के लिए एक विशेष सिद्धान्त दिया जिसे एकात्म मानववाद कहते हैं। उन्होंने कहा कि गांधी और दीनदयाल का एक ही मूल था मानवता को मानव का पाठ पढ़ाना।
डॉ. मिश्रा ने दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद की व्याख्या करते हुए कहा कि स्वदेशी, स्वावलम्बन के लिए हमें कुछ चीजों को करना जरूरी है जिनमें आर्थिक और सामाजिक विषमता को खत्म करना, उपभोगवाद अर्थात उपयोग की चीजों पर नियंत्रण रखना चाहिए। तीसरा है परिग्रह अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को अपनी सीमाएं बांधनी पड़ेगी। एकात्म मानववाद के अंतर्गत पूंजीवादी व्यवस्था और साम्यवादी व्यवस्था दोनों के बीच दोनों से अलग एक गांधीवादी व्यवस्था की बात की गई है।
उन्होंने कहा कि आत्मनिर्भरता के लिए विचार में, व्यवहार में समग्रता होनी चाहिए। आप तब तक स्वावलम्बी नहीं हो सकते जब तक आत्मसंकल्पी नहीं होंगे। आत्मसंकल्पी होंगे तो नए-नए अनुसंधान भी करेंगे। दीनदयाल जी की पंक्तियों को उद्धृत करते हुए डॉ. मिश्रा ने कहा कि अर्थ का अभाव नहीं और अर्थ का अत्यधिक प्रभाव भी नहीं होना चािहए। अर्थव्यवस्था का विकेन्द्रीकरण होना चाहिए। किसी व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाने के लिए उत्पादन, वितरण, उपभोग इन तीन क्रियाओं का योजन अत्यंत आवश्यक है। उत्पादन विभिन्न जगहों पर छोटे स्तर पर होना चाहिए।
वितरण में समाज की भागीदारी होनी चाहिए। संयमित उपभोग होना चाहिए। जीवन को नियंत्रित करने के लिए तीनों क्रियाओं को एक दूसरे में रूपान्तरित करना आवश्यक है। स्वावलम्बी बनने के लिए आर्थिक लोकतंत्र की जरूरत है। जब तक भारतवर्ष में आपसी संघर्ष, शत्रुता, जातीय वैमनस्य, धार्मिक अशांति, आंतरिक टकराव, राज्यविहीन राजनीति रहेगी, तब तक दीनदयाल के स्वावलम्बन के दर्शन की उपादेयता बार-बार रहेगी। व्याख्यान के अंत में संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।