संदीप गौतम/न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 28 जुलाई। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा मंगलवार को ‘अभिनय-भारतीय संस्कृति का सशक्त संवाहक’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। संस्थान द्वारा आयोजित व्याख्यानमाला की श्रृंखला में यह छठी कड़ी थी। व्याख्यान में पद्मश्री विभूषित मनोज जोशी सुप्रसिद्ध अभिनेता मुख्य वक्ता रहे। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए बताया कि प्रत्येक मंगलवार को प्रातः 11 बजे से 12 बजे तक संस्कृति बोध से जुड़े किसी न किसी विषय पर व्याख्यान का सीधा प्रसारण संस्थान के यूट्यूब चैनल वीबीएसएसएस केकेआर पर होता है। उन्होंने कहा कि विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान देश की भावी पीढ़ी में सांस्कृतिक जागरण के कार्य में अपने उद्देश्यों के अनुरूप लगातार कार्य कर रहा है। देश में हजारों कार्यकर्ता भी इस कार्य को आगे बढ़ाने में प्रयत्नशील रहते हैं। उन्होंने संस्थान द्वारा चलाए जा रहे संस्कृति बोध से जुड़े विषयों संस्कृति ज्ञान परीक्षा, अनेक प्रकार के साहित्य का प्रकाशन, निबंध प्रतियोगिता, कथा-कथन, तात्कालिक भाषण, संस्कृति महोत्सव जैसे विषयों का उल्लेख करते हुए कहा कि इन आयामों में प्रस्तुतियां निश्चित रूप से उल्लेखनीय होती हैं और हमें अपनी संस्कृति पर गर्व करने का अनुभव होता है। डॉ. रामेन्द्र सिंह ने पद्मश्री विभूषित सुप्रसिद्ध अभिनेता मनोज जोशी का परिचय कराते हुए कहा कि 60 वर्षीय मनोज जोशी 1132 बार चाणक्य नाटक का मंचन कर चुके हैं। देश-विदेश में अभिनय का लोहा मनवाने वाले श्री जोशी सीनियर टी.वी आर्टिस्ट एसोसिएशन के उपाध्यक्ष हैं। तत्पश्चात गीता निकेतन आवासीय विद्यालय में संगीत विषय की प्राध्यापिका श्रीमती सविता सेठ ने ‘‘निर्माणों के पावन युग में हम चरित्र निर्माण न भूलें….’’ गीत प्रस्तुत किया।
मुख्य वक्ता मनोज जोशी ने रामधारी दिनकर जी के वाक्यों को उद्बोधित करते हुए कहा कि देश में जितने भी हिन्दू बसते हैं, उनकी यह संस्कृति है। भारत की प्रत्येक विशेषता हमारी सामाजिक संस्कृति की ही विशेषता है। जिस भाषा से भारत का सांस्कृतिक विकास हुआ है, वह संसार की प्राचीनतम भाषा है संस्कृत। जो आदि ग्रंथ समझा जाता है वही समग्र मानवता का भारतीय समाज का भी प्राचीनतम ग्रंथ है। उन्होंने कहा कि संस्कार से ही व्यक्ति सुसंस्कृत होता है। भारतीय संस्कृति निरंतर प्रवाहित हो रही है। यह संस्कृति ही इस देश का आंतरिक गुण है। पूर्व में अनेक आक्रमणकारी इस देश में आए और भारतीय संस्कृति पर प्रहार किया लेकिन वे सब हममें एकाकार हो गए। भारत की मूल भावना ही वसुधैव कुटुम्बकम एवं सर्वे भवन्तु सुखिनः रही है। हम स्वयं के बारे में नहीं अपितु प्राणीमात्र के बारे में सोचते हैं। भारतीय संस्कृति संपूर्ण रूप से आध्यात्मिक, नैतिक, चारित्रिक, मानसिक विकास करने वाली है। यह हमारी चेतना है।
उन्होंने कहा कि आध्यात्मिक संस्कृति का प्राण है धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। उन्होंने गीता के कर्मवाद की व्याख्या करते हुए कहा कि कला में निपुण होना है या अभिनय के क्षेत्र में आना है तो कर्मवाद बहुत महत्वपूर्ण है।
उन्होंने कहा कि कोई भी पात्र करते समय मानस पटल पर उसे सोचना, सभी विचारों को छोड़कर इस पात्र को समझकर उसे आत्मसात करके उस पात्र की तरह विचरना यह भी योग ही है और यह योग भी हमारी संस्कृति का एक भाग है। उन्होंने नाट्य विधा पर बोलते हुए कहा कि नाट्य शास्त्र प्रत्येक पाठशाला में अनिवार्य करना चाहिए तब जाकर स्पंदनशील व्यक्तित्व होंगे और व्यक्तित्व विकास होगा। यदि व्यक्ति अच्छा होगा तो समाज अच्छा होगा। समाज अच्छा होगा तो राष्ट्र अच्छा होगा। यह विचार मूलतः भारतीय संस्कृति में है। नाट्य शास्त्र हमारे भारतीय चिंतन, कला एवं सौंदर्य शास्त्र का एक अद्भुत भंडार है। हमारे भारत का लोक नाट्य, लोक नृत्य, चित्रकला या कोई भी कला, वह संस्कृति नाम के महासागर के आधार पर चलती हुई चीजें हैं। हर कलाकार भारतीय संस्कृति का संवाहक है। उन्होंने कहा कि वे भारतवर्ष को एकत्रित करने वाले सरदार वल्लभभाई पटेल पर कार्य कर रहे हैं। उन्होंने नाट्य शास्त्र की विशेषताएं एवं उसकी बारीकियों पर प्रकाश डालते हुए रंगमंच, कला के प्रति भी अभिप्रेरित किया। व्याख्यान के अंत में संस्थान के निदेशक एवं व्याख्यानमाला संयोजक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया।