भारतीय संस्कृति का ठाठ संगीत रूपी स्तम्भ पर खड़ा है : डॉ. ललित बिहारी गोस्वाम
संगीत से प्राप्त होती है मन की यह शांतता : अवनीश भटनागर
‘संगीत और संस्कृति का अन्तर्सम्बन्ध’ विषय पर व्याख्यान आयोजित
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 10 अक्तूबर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘संगीत और संस्कृति का अन्तर्सम्बन्ध’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में लखनऊ विश्वविद्यालय सांख्यिकी विभाग की प्रोफेसर डॉ. शीला मिश्र मुख्य वक्ता रहीं। संस्थान के अध्यक्ष डॉ. ललित बिहारी गोस्वामी ने अध्यक्षता की जबकि संस्थान के सचिव अवनीश भटनागर ने धन्यवाद ज्ञापित किया।
संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार हेतु संस्कृति बोध परियोजना की जानकारी दी। उन्होंने कहा कि संस्कृति बोध के अंतर्गत संस्कृति ज्ञान परीक्षा, निबंध प्रतियोगिता, संस्कृति महोत्सव जैसे आयाम आज के छात्रों को भारतीय संस्कृति से जोड़ रहे हैं। संस्थान द्वारा शैक्षित विचार गोष्ठियां, समाजोपयोगी कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते हैं। संस्थान का अपना साहित्य एवं प्रकाशन विभाग भी है जिसका सद्साहित्य आमजन में लोकप्रिय है।
मुख्य वक्ता डॉ. शीला मिश्र ने कहा कि जब भी कहीं गति होती है, कर्म होता है, ध्वनि होती है तो लय होता है, संगीत होता है, जीवन होता है। और जब जीवन होता है, तो उसमें विवेक होता है और संगीत के साथ-साथ संस्कृति की उत्पत्ति भी होती है। उन्होंने कहा कि वैदिक काल से ही हमारे ऋषि-मुनियों ने हमारी सृष्टि की उत्पत्ति, हमारे जीवन का आधार और हमारे जीवन का लक्ष्य सब कुछ स्पष्ट करके बता दिया था।
उन्होंने कहा कि नाद जब चैतन्य के माध्यम से लय और तालबद्ध हो जाता है तो संगीत बन जाता है। इसी चेतना की अनुभूति संचरण, संरक्षण एवं विस्तार की प्रक्रिया ही संस्कृति है, जिसका सशक्त माध्यम संगीत है। प्रकृति को परिष्कृत कर चैतन्य से भर परम चैतन्य से एकाकार करा देने का नाम संस्कृति है।
उन्होंने कहा कि सभ्यता बाह्य जगत तथा संस्कृति आंतरिक जगत से संबंधित है। भौतिक आवश्यकताएं बाह्य जगत अर्थात् सभ्यता से तथा आध्यात्मिक आवश्यकताएं संस्कृति अर्थात् कला, संगीत और साहित्य के माध्यम से पूरी होती हैं तथा इनके माध्यम से मनुष्य अपने जीवन के शाश्वत लक्ष्य तथा पूर्णता को सहजता से प्राप्त करता है। संस्कृति का आधार उस सभ्यता के मूल्य होते हैं जो उसके दर्शन से निःसृत होते हैं।
उन्होंने कहा कि संगीत और योग को ही अपने जीवन में धारण करना, यह भारत की दृष्टि या दर्शन रहा है। इसे जन सामान्य में कैसे पहुंचाया जाए, उस विधा को हम संस्कृति कहते हैं। इनका अन्तर्सम्बन्ध उसी प्रकार से है जिस प्रकार पुष्प और सुगंध का है। यदि संस्कृति है तो बिना संगीत के गुणसाध्य नहीं हो सकती और यदि संस्कृति है तो उसका परम लक्ष्य परमात्मा से योग लगाना है। संगीत और संस्कृति एक दूसरे के साथ-साथ विकसित होती हैं। संस्कृति का प्रभाव संगीत पर होता है और संगीत का प्रभाव संस्कृति पर होता है। भारतीय संदर्भ में संगीत के माध्यम से ही आज तक हमारी प्राचीन संस्कृति, प्राचीन ज्ञान सुरक्षित है।
डॉ. मिश्र ने कहा कि कहा कि जैसे-जैसे माया का आवरण हटता जाता है, पुनः जीव ईश्वर के साथ अभिन्न हो जाता है। चेतन से चेतन के संवाद स्थापित करने की कला ही संगीत है, जिसकी समग्रता में साहित्य तथा कला की समस्त विधाएं निहित हैं। पुरुषार्थ चतुष्ट्य के महालक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करने के लिए भी संगीत उत्कृष्टतम साधन है।
अध्यक्षीय उद्बोधन में संस्थान के अध्यक्ष डॉ. ललित बिहारी गोस्वामी ने कहा कि भारतीय संस्कृति का पूरा का पूरा ठाठ जिन स्तम्भों पर खड़ा है, उसमें से एक बड़ा सबल स्तम्भ संगीत है। संगीत हमारा जीवन है। जीवन जब एक सुर-लय-ताल में चलता है तो प्रकृति सुर-लय-ताल में चलती है। पूरे देश में संगीत के विकास में मंदिरों की अनिवार्य भूमिका रही है। संगीत के तीनों अंग गायन, वादन और नृत्य मंदिरों में ही दिखाई देते हैं।
भारतीय जीवन के किसी भी अंग को लेंगे तो उसके मूल में संस्कृति दिखाई देगी। उन्होंने विद्या भारती के चारों आयामों में से संगीत का उल्लेख करते हुए कहा कि विद्या भारती से संबद्ध सभी विद्यालयों में संगीत की शिक्षा दी जाती है। धीरे-धीरे हम भारतीय जीवन मूल्यों को संगीत से कितना पुनर्जीवित कर सकते हैं, ऐसा प्रयास हम निरंतर करते हैं।
संस्थान के सचिव अवनीश भटनागर धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि पंचकोशों में आधारभूत विषयों की चर्चा करते हैं और उन्हें विद्यालयों में लागू करते हैं। इनमें से शारीरिक शिक्षा, योग शिक्षा, संस्कृत शिक्षा, संगीत शिक्षा और नैतिक व आध्यात्मिक शिक्षा जैसी मूलभूत बातें हैं जो शिक्षा में जोड़नी ही चाहिए। उन्होंने कहा कि कुछ सीखने योग्य बनने के लिए मन का शांत होना, मन का एकाग्र होना और मन का अनासक्त होना आवश्यक है। मन की यह शांतता संगीत से प्राप्त होती है।
व्याख्यान के अंत में संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और आगामी व्याख्यान जो प्रत्येक शनिवार को सायं 4 से 5 बजे तक प्रसारित किया जाएगा, उससे जुड़ने की अपील करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।