स्वस्थ प्राणों का लक्षण है उत्साह, सकारात्मकता और प्रसन्नता
जीवन में सफलता के लिए प्राणों का उत्साहित होना अत्यंत आवश्यक
श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम का शुभारंभ
न्यूज़ डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र । विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम का शुभारंभ परम पूजनीय डॉक्टर शाश्वतानंद गिरि जी ने मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलित करके किया। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेंद्र सिंह ने कार्यक्रम का संचालन करते हुए बताया कि श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाणपत्र पाठ्यक्रम के रूप में यह कक्षाएं 31 जनवरी तक चलेंगी। जीवनोपयोगी, समाजोपयोगी 9 विषयों को लेकर इन कक्षाओं में परम पूजनीय डॉ. शाश्वतानंद गिरि जी श्रीमद्भगवद्गीता को सहज रूप में समझा रहे हैं। ये कक्षाएं प्रत्यक्ष एवं तरंग माध्यम से संचालित की जा रही हैं। प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम की रचना, संचालन में डॉ. ऋषि गोयल एवं कृष्ण कुमार भंडारी जी के मूल्यवान सहयोग के लिए उन्होंने आभार व्यक्त किया।
डॉ. ऋषि गोयल ने विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि गीता सभी के कल्याण के लिए है। जिस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता का विश्वव्यापी स्तर पर प्रचार-प्रसार हुआ है, उसकी मान्यता एवं स्वीकार्यता बढ़ी है। इसके कारण श्रीमद्भगवद्गीता के बारे में जिज्ञासा का भाव सबके मन में है। उस जिज्ञासा को शांत करने का, गीता को समझने एवं प्रारंभिक परिचय प्राप्त करने के उपयुक्त प्लेटफॉर्म्स बहुत कम नजर आते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता को एक कक्षा के रूप में समझाने का विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान का यह अनूठा प्रयास अत्यंत सराहनीय है।
श्री श्री 1008 परम पूजनीय डॉ. शाश्वतानंद गिरि जी ने कहा कि शरीर, प्राण और मन शरीर रूपी मशीनरी है जो पशु और मनुष्य में एक जैसी होती है। बुद्धि और हृदय दो ऐसे घटक हैं जो हमें मनुष्य बनाते हैं। अब कहीं कोई भी सिद्धि प्राप्त करनी है तो शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और हृदय यह पांचों जब एक साथ हों तो उसको सजगता कहेंगे। इन पांचों को मिलकर जैसा, जो काम करना चाहिए, उसे समग्रता कहेंगे। विद्यार्थी, शिक्षक, प्रबंधन, व्यवसाय, योग और ध्यान की यही ‘मास्टर की’ है।
उन्होंने कहा कि हमारे अतिरिक्त विश्व में जितने भी मत मतान्तर हैं, उन सब में मान्यताएं हैं। हमारे यहां मान्यताएं नहीं हैं, हमारे यहां बोध है, विज्ञान है। गीता में ज्ञान है, विज्ञान है और प्रज्ञान है तो मानवीय चेतना का अधिकतम परिमार्जन पूर्णतम विकसित स्थिति यदि कहीं मिलती है तो हमारे यहां है, हमारे उपनिषदों में, ब्रह्मसूत्रों में, गीता में है। बुद्धि का सम्मान करने वाले इस विश्व के सभी ग्रंथों में श्रेष्ठतम श्रीमद्भगवद् गीता है। इसमें सबसे अधिक यदि किसी तत्व को श्रीकृष्ण ने सम्मानित किया है वह बुद्धि तत्व है।
उन्होंने कहा कि हम अपने वास्तविक सच को पहचानने के लिए थोड़ी सी भी मेहनत नहीं करते हैं। जो हमारे सामने हैं उससे हमें इतना मोह है कि हम उससे अपनी परंपराओं का, अपने दर्शन का सामंजस्य करके चलना चाहते हैं। जबकि मनुष्य जहां तक पहुंच सकता है वह यात्रा हमने पहले ही पार कर ली है।
उन्होंने बुद्धि के वैशिष्ट्य पर बोलते हुए कहा कि बुद्धि का कार्य है विचार करना, अंतर्मुखी होने की स्थिति में जाकर अंदर के सच को पकड़ पाना, यह केवल मनुष्य में संभव है। जितनी संभावना हमारी है, वह संभावना विकसित हो जाए, प्रस्फुटित हो जाए, मुखरित हो जाए, प्रफुल्लित हो जाए, उल्लसित हो जाए, तब हम मनुष्य हो सके। बिना अध्यात्म विद्या के सच्चे अर्थों में कोई भी व्यक्ति मनुष्य हो नहीं सकता।
उन्होंने कहा कि बुद्धि का लक्षण है तटस्थ हो, सत्य धर्म और नीति की दृष्टि से निर्णय करे। लेकिन इसके लिए उसे शिक्षार्जन करना पड़ेगा, विद्यार्जन और स्वाध्याय करना पड़ेगा। डॉ. शाश्वतानंद ने कहा कि स्वस्थ प्राणों का लक्षण है उत्साह, सकारात्मकता और प्रसन्नता। बिना प्राणों के उत्साहित हुए कोई भी विद्यार्थी सच्चे अर्थों में सफलता की ओर नहीं बढ़ सकता। मानव जाति के लिए अर्जुन को माध्यम बनाकर भगवान श्री कृष्ण ने सृष्टि के लिए, मनुष्य मात्र के लिए यह ज्ञान दिया है। सहज, स्वाभाविक, लोक मांगलिक आचरण विधान ही धर्म है। डॉ. रामेंद्र सिंह ने बताया कि पाठ्यक्रम के प्रथम बैच में गीता अध्ययन के प्रति समाज के उत्साह को प्रदर्शित करता है।