तर्क तिरोहित हो जाए तो समझो सत्य तक पहुंच गए
हम स्वयं के बारे में भी जानें तो जीने का आनंद ही कुछ और होगा
न्यूज़ डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र । विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम के पांचवें दिन ‘गीता प्रणीत शिक्षा दृष्टि’ विषय रहा। विधिवत कक्षा का शुभारंभ मां सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। प्रारंभ में संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने विषय की जानकारी देते हुए प्रत्यक्ष एवं तरंग माध्यम से जुड़े सभी प्रतिभागियों का अभिवादन किया। कृष्ण कुमार भंडारी ने सभी प्रतिभागियों का इस सर्टिफिकेट कोर्स में जुड़ने पर धन्यवाद किया और कहा कि हमारा अहोभाग्य है कि हमें श्रीमद्भगवद्गीता के इन जीवनोपयोगी विषयों को जानने और समझने का अवसर मिला है। उन्होंने देश के अनेक प्रदेशों से जुड़े प्रतिभागियों से वार्ता भी की।
‘गीता प्रणीत शिक्षा दृष्टि’ विषय पर उद्बोधन देते हुए डॉ. शाश्वतानंद ने कहा कि बालक जब जन्म लेने के बाद धीरे-धीरे बड़ा होता है और संस्कारों में पलता है तो उसे नई-नई चीजें सीखने की इच्छा होती है। उस इच्छा की तृप्ति के लिए शिक्षा होती है। लेकिन क्या सीखना है? ‘जो मैं हूँ’ वही हमें सीखना है। वही हमारी जिज्ञासा होती है।
शिक्षा का लक्ष्यार्थ है जो मेरा अन्तर्सत्य है तथ्य की दृष्टि से, व्यावहारिक दृष्टि से और पारमार्थिक दृष्टि से भी, उसको जानना और उसका प्रस्फुटन होना, यह सारा चेतन व्यापार ही शिक्षा है। यदि शरीर के निर्वाह की शिक्षा के साथ-साथ हम स्वयं के बारे में भी सीखते हैं और जानते हैं तो जीने का आनंद ही कुछ और होता है। सही मायनों में तभी शिक्षा पूर्ण होती है।
विषय में आगे बताया गया कि तर्क से ही सत्य प्रतिष्ठित नहीं होता। अंततः जब तर्क तिरोहित हो जाए तो समझो हम सत्य तक पहुंच गए। सत्य अतर्क होता है क्योंकि वह परिपूर्ण है। तर्क में तो सापेक्षता रहती है क्योंकि वह निरपेक्ष है। सृष्टि दो तरह की है, एक सृष्टि ईश्वर की और दूसरी जीव की। ईश्वर ने मनुष्य बनाया, यह ईश्वर सृष्टि हुई फिर ईश्वर की सृष्टि में मनुष्य अपनी सृष्टि करता है। इस प्रकार जीव सृष्टि ईश्वर सृष्टि पर निर्भर होती है।
हमारे जीवन में शिक्षा की पूर्णता का अर्थ है कि जीवन में आने वाली किसी भी स्थिति-परिस्थिति में जीवन का सही-सही उचित निर्णय ले सकें। यही शिक्षा का लक्ष्य है। इसका अर्थ निर्णय लेने की योग्यता की जो पराकाष्ठा है, वह है प्रज्ञावान होना। बुद्धि का अंतिम परिष्कार प्रज्ञा है। व्यक्तित्व का अंतिम शिष्ट शुद्ध सिद्ध स्वरूप प्रज्ञावान होना है। किसी बुद्धि को प्रज्ञा कहते हैं। धर्म के बिना अंदर और बाहर से पूर्ण रूप से स्वस्थ हो ही नहीं सकते। आत्मज्ञान पूर्वक जो जीवन का विधान है वह धर्म है। उपासना पद्धति अपनी वृत्ति को अपने अंतःकरण को शुद्ध बनाए रखने के लिए उसका एक हिस्सा है।
शिक्षा व्यापार देह से शुरू होता है। शरीर और संसार के क्रम में चलता है। लेकिन गीता की शिक्षा देही से शुरू होती है क्योंकि देही के बोध के साथ ही आपका देह स्वस्थ हो सकता है। जो बुद्धि की प्रेरणा से अपने जीवन का निर्माण करते हों, गति देते हों, मन की प्रेरणा से नहीं। क्योंकि मन नीति और अनीति का विचार नहीं करता, यह काम बुद्धि का है। इसलिए हमें मन-मुखी नहीं गुरु-मुखी बनना है। इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के अनेकों रहस्यों को उद्घाटित किया। इस अवसर पर संस्थान के राष्ट्रीय सचिव वासुदेव प्रजापति, डॉ. आई.सी. मित्तल, जयभगवान सिंगला, विष्णु कान्ता भंडारी व अनेक जिज्ञासु उपस्थित रहे।