मूल्यजीवी होना है सर्वांगीण विकास का मूल मंत्र
अंतरात्मा के बोध से युक्त हैं तो हर अंग अजस्व ऊर्जा से युक्त रहेगा
न्यूज़ डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र । विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान में श्रीमद्भगवद्गीता प्रमाण पत्र पाठ्यक्रम के 13वें दिन ‘‘सर्वांगीण विकास और गीता’’ विषय रहा। विधिवत रूप से कक्षा का शुभारंभ माँ सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्वलन से हुआ। संस्थान के निदेशक डॉ रामेंद्र सिंह ने बताया कि यह कोर्स 31 जनवरी तक चलेगा। इसके पश्चात परीक्षा होगी और प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र दिए जाएंगे।
विषय को समझाते हुए डॉ. शाश्वतानंद गिरि ने कहा कि अध्यात्म की गति में परमार्थ तक पहुंचने का नाम विकास है। यानि केंद्र में पहुंचना विकास है। केंद्र में पहुंचते ही हम सर्वात्मक और परिपूर्ण हो जाते हैं। उन्होंने कहा कि यदि अंतरात्मा के बोध से आप युक्त हैं तो फिर आपका हर अंग अजस्व ऊर्जा से युक्त रहेगा। फिर वह ऊर्जा कभी घटने वाली नहीं है। परमात्मा ने हमें जो दुधारी बुद्धि दी है वह इसलिए दी थी कि हम अंतरमुख होकर अपने सच को खोजेंगे, लेकिन हम संसार में ही दुधारी हो गए। परम सत्य की व्याख्या करते हुए कहा कि अध्यात्म में उपाधियों का निरसन, बाधित करने का क्रम है, अपवाद का क्रम है और अपवाद करते-करते जब ऐसी स्थिति आ जाए, ऐसी चीज बच जाए जिसका अपवाद संभव नहीं है, वह है परम सत्य।
विषय में आगे कहा गया कि यह जो सार्वभौम भाव है कि सभी प्रेम चाहते हैं, यह इस बात को इंगित करता है कि प्रेम भी एक शाश्वत तत्व है। प्रेम व्यवहार में भावात्मक अभेद होता है। प्रेम के मूल में एकात्मता है। बिना अध्यात्म विद्या के अपने जीवन को सच्चे अर्थों में चला नहीं सकते। इसके बिना सर्वांगीण विकास हो ही नहीं सकता। अध्यात्म विद्या के बिना आपकी शुद्ध बुद्धि भी एक्टिवेट नहीं हो सकती। सर्वांगीण विकास का अर्थ किसी भी विकास के मूल में है वह है सकारात्मकता। यह सार्वभौम मूल्य है कि सकारात्मक रहें। सर्वांगीण विकास का मतलब केवल भौतिक विकास नहीं, हमारा अंतर विकास भी है।
संतुलित विकास उसे कहेंगे जब मन का, बुद्धि का और भाव का समवेत विकास हो। वह होगा नहीं। क्योंकि केवल मन के तल पर अध्ययन की, पढ़ने की कसरत की है। उन्होंने कहा कि जिस भी इन्द्री में चेतना बैठ जाएगी उसी इन्द्री की वासना सताने लग जाएगी। चेतना मन में बैठ जाएगी तो चिंता में उतर जाओगे। शरीर में बैठी है तो वासनाओं से भरोगे और अगर चेतना बुद्धि में आई तो विचारों में चले जाओगे। वह विकास हुआ तो विचार होगा, विवेक होगा, चिंतन होगा और जब चेतना हृदय के तल पर आती है, तब प्रेम की भावना की संभावनाएं निर्मित होती हैं।
भगवान श्री कृष्ण और गोपियों का प्रसंग सुनाते हुए उन्होंने कहा कि यह हृदय भगवान का मंदिर है। यहीं पर आत्मा निवास करती है और यहीं प्रेम निवास करता है। इस हृदय के तल से जब आत्मीयता आती है वह सच्चा प्रेम है और उस प्रेम से वासना का दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। अध्यात्मविद्या पूर्वक हमें श्रीमद्भगवद्गीता ने जो जीवन के मूल्य दिए हैं, उन्हें हमें व्यावहारिक जगत में जीना चाहिए। जीवन मूल्य पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि जो हम कर रहे हैं, जो निर्णय है, उसे देखें कि यह सत्य, धर्म और नीति से अनुमोदित है या नहीं। यदि उससे अनुमोदित नहीं है तो यह घातक है। सर्वांगीण विकास का यह मूल मंत्र है कि आप मूल्यजीवी हों और मूल्य की एक ही विधा है सत्य, धर्म और नीति से अनुमोदन हो। जो हम अपने लिए चाहते हैं वास्तव में वही धर्म है।