‘भारत देश: नाम तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि’ विषय पर व्याख्यान आयोजित
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 24 अक्तूबर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘भारत देश: नाम तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में भारतीय इतिहास संस्कृति तथा पुरातत्व विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के पूर्व अध्यक्ष डॉ. एस.पी. शुक्ल मुख्य-वक्ता रहे।
अध्यक्षता संस्थान के सह-सचिव वासुदेव प्रजापति ने की। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए बताया कि हमारी पुण्य भूमि, धर्म भूमि यही भारत भूमि है, हमारे श्रद्धा केन्द्र एवं प्रतीक भी इसी भूमि पर हैं। अस्तु यह हमारे लिए भूमि मात्र नहीं मातृभूमि है।
इस भूमि पर जन्म लेना, निवास करना एवं निर्वाण प्राप्त करना गौरव की बात है। विश्व में मात्र यही देश है जिसे हम श्रद्धा से माता कहते हैं। हमारे लिए यह देवभूमि, यज्ञ भूमि, ज्ञान भूमि, मंगलमयी पुण्य भूमि एवं बलिदानों की भूमि है। यह देश अपनी संस्कृति के कारण अमर है। भारत की राष्ट्रीय एकात्मता के सूत्र इसके इतिहास, भूगोल, धर्म-दर्शन एवं संस्कृति में विपुल मात्र में विद्यमान हैं।
मुख्य वक्ता डॉ. एस.पी. शुक्ल ने कहा कि भारत की संस्कृतिक पृष्ठभूमि बहुआयामी है जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और सिन्धु घाटी की सभ्यता के दौरान बनी और आगे चलकर वैदिक युग में विकसित हुई। बौद्ध धर्म एवं स्वर्ण युग की शुरुआत और उसके अस्तगमन के साथ फली-फूली अपनी खुद की प्राचीन विरासत शामिल हैं। इसके साथ ही पड़ोसी देशों के रिवाज, परम्पराओं और विचारों का भी इसमें समावेश है।
पूरे भारतवर्ष में कोई भी शुभ कार्य करते समय लिए जाने वाले संकल्प में भारतवर्ष का नाम प्रमुखता से आता है। यह केवल नाम ही नहीं अपितु भारतवर्ष की एकता, भौगोलिक स्थिति, आचार-विचार से अवगत कराता है। भारत की स्थिति समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण, विष्णु पुराण में बताई गई है। समुद्र के उत्तर में, हिमालय के दक्षिण में भारतवर्ष है।
यहां के रहने वाले भारतीय हैं। पुराणों में भारतवर्ष की आकृति पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि इसकी आकृति कछुए की तरह है, धनुष की तरह है या सकट बैलगाड़ी की तरह है। भारतवर्ष में 9 द्वीप बताए गए हैं जिनका पुराणों में उल्लेख है।
डॉ. शुक्ल ने कहा कि प्राचीन साहित्य में भारत नाम के बारे में तीन अवधारणाएं हैं। पुत्र और शिष्य भरत के कारण यह देश भारत कहलाया। इसकी पुष्टि पुराणों से होती है। विष्णु पुराण के अनुसार प्रियव्रत के पुत्र और जम्बूद्वीप के सम्राट आग्नीध्र के पुत्र नाभि के समय इस देश का नाम हिम वर्ष था। नाभि के पौत्र या ऋषभ के पुत्र भरत के नाम से यह भारतवर्ष प्रसिद्ध हुआ। भागवत पुराण में भी इस देश का नाम अजनाभ बताया गया है। बाद में भरत के समय इसे भारत कहने लगे।
संस्थान के सह-सचिव वासुदेव प्रजापति ने अध्यक्षीय उद्बोधन में कहा कि हमारा देश, यहां पनपी संस्कृति लगभग 1 हजार 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 122 वर्ष पुरानी है अर्थात् हम विश्व के आदि देश हैं। यह भी कहा गया है कि हमारा देश देवनिर्मित है। हिमालय से लेकर हिन्दू सरोवर तक का जो प्राकृतिक भू-भाग है, इसकी रचना किसी व्यक्ति ने नहीं स्वयं देवों ने की है। यह हमारा देव निर्मित देश है।
यह पुण्यभूमि भारत है। विश्व का यह केवल एकमात्र ऐसा देश है जो अपने देश को केवल कंकड़, पत्थर का भू-भाग न मानकर इसे साक्षात मां मानता है और इसी मां की पूजा में अपनी धन्यता मानता है। ऐसी पुण्यभूमि भारतमाता हम सबके लिए वंदनीय है। इसी भूमि पर सबसे पहले संस्कृति और सभ्यता का विकास हुआ था। विश्व के अनेक देश जब मनुष्य की भांति जीवन जीना नहीं जानते थे, ऐसे समय में भारत ने ही जीवन जीने की कला सिखाई। सांस्कृतिक दृष्टि से यह उत्कृष्ट राष्ट्र रहा है। इसीलिए हमारे राष्ट्र को विश्व ने अपना गुरु माना है।
संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और आगामी व्याख्यान जो प्रत्येक शनिवार को सायं 4 से 5 बजे तक प्रसारित किया जाएगा, उससे जुड़ने की अपील करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।