‘दक्षिण भारत का सांस्कृतिक परिचय’ विषय पर व्याख्यान आयोजित
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 31 अक्तूबर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘दक्षिण भारत का सांस्कृतिक परिचय’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में दलित आदिवासी अध्ययन केन्द्र हैदराबाद विश्वविद्यालय के विभागाध्यक्ष आचार्य आर.श्री सर्राजू एवं भारतीय विद्या केन्द्रम महाविद्यालय विशाखापट्टनम के पूर्व प्राचार्य डॉ. ओरुगंटि सीताराम मूर्ति मुख्य-वक्ता रहे।
संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए बताया कि संपूर्ण भारत भूमि का परिचय हम सबको होना ही चाहिए। वह परिचय ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी हमें विचार करते हुए जहां-जहां से पढ़ने को मिले, जिन ग्रंथों के माध्यम से मिले, वह जानकारी प्राप्त करनी चाहिए। दक्षिण भारत में मुख्य रूप से कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना आदि आते हैं। इनका भारतीय संस्कृति में विशेष योगदान है।
उन्होंने बताया कि आचार्य आर. श्री सर्राजू विभिन्न विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक निकायों के सदस्य हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय भारत सरकार द्वारा उन्हें हिन्दी भाषा और साहित्य में योगदान के लिए सम्मानित भी किया गया है। उन्होंने बताया कि शिक्षा के क्षेत्र में सक्रिय डॉ॰ ओरुगंटि सीताराम मूर्ति ने हिन्दी-तेलुगु में आपने तुलनात्मक साहित्य पर शोध किया है।
विषय की प्रस्तावना रखते हुए संस्थान के सचिव अवनीश भटनागर ने कहा कि भौगोलिक रचनाओं से सांस्कृतिक पहचान बदलती नहीं है। दक्षिण भारत अपनी सांस्कृतिक मान्यताओं, परंपराओं, अपने रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक आस्थाओं के प्रति अत्यंत प्रतिबद्ध है। केवल धर्म-आध्यात्म के क्षेत्र में ही नहीं, देशभर में और हमारे दक्षिण भारत के बंधु जिन भी देशों में गए, वे अपनी अलग पहचान इस नाते से बनाते हैं, कि वे बहुत ही कठोरतापूर्वक, अत्यंत निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ अपने सांस्कृतिक जीवन पद्धतियों का आचरण यह घर व परिवार में भी करते हैं।
अपनी भाषा, संस्कृति, अपने विचारों के प्रति, अपने जीवन दर्शन के प्रति आस्था और निष्ठा का ऐसा स्वरूप दुनिया भर में दिखाई देता है। दक्षिण भारत की संस्कृति सनातन संस्कृति है, इस देश के व्यक्ति के हृदय में, अंतःकरण में बसी हुई संस्कृति है। दक्षिण भारत उसमें कितनी दृढ़ता के साथ उसकी पालना परिवारों में होती है, वह हम सब लोगों के लिए जानना और उस पर गौरव का भाव अनुभव करना बहुत आवश्यक है।
आचार्य आर. श्री सर्राजू ने कहा कि दक्षिण भारत की विशेषताएं वहां के मनुष्यों के मन, उनके आचार-विचार, कलाएं, सभ्यता, बौद्धिक विकास भारतीय संस्कृति के अंग के रूप में ही विकसित हुई हैं। प्राचीन काल, सांस्कृतिक परंपराएं, मध्यकाल, आधुनिक युग की विशेषताओं के प्रति ध्यान दिलाते हुए वर्तमान में क्या स्थिति दिखाई देती है, इस पर श्री सर्राजू ने ध्यान इंगित किया।
उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति के विकास के क्रम में अनेक समुदायों का एकीकरण हुआ और समाज में संस्कृतिकरण की अनावरत के रूप में प्रक्रिया चली आ रही है। कुछ लोग उत्तर और दक्षिण की संस्कृति को अलग-अलग रूप में देखते हैं, लेकिन उत्तर और दक्षिण वाली संकल्पनाएं विपरीत नहीं हैं बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। भारत में भाषा निरपेक्ष भारतीय चेतना के विकास की सांस्कृतिक प्रक्रिया हमें दिखाई देती है।
आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास 1000 ई.पू. के बाद हुआ और भारत की राष्ट्रीय संस्कृति के विकास में वैदिक परम्परा ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया अलग-अलग समाजों में अलग-अलग कालों में हुई थी। वांग्मय में जीवन के प्रमुख लक्ष्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भारतीय परंपरा में स्पष्ट किया गया है।
भारतीय संस्कृति में ही विशेष लक्ष्ण है कि हम चीजों को वर्गीकृत करके स्पष्ट रूप से लक्षणों का रेखांकन करते हैं। परम्परागत भारतीय संस्कृति की विशेषताएं दक्षिण में भी दिखाई देती हैं। दक्षिण की संस्कृति में एक विशेष प्रकार की चेतना का विकास हुआ था। इस दौरान वीरशलिंगम, पन्तलु जैसे महापुरुषों ने सुधारवादी आन्दोलन में भाग लिया था। दक्षिण की संस्कृति पूरी भारतीय संस्कृति के एक अंग के रूप में विकसित होती आ रही है।
डॉ. ओरुगंटि सीताराम मूर्ति ने कहा कि सांस्कृतिक एकता अपने देश में युगों-युगों से अक्षुण्ण रही है। इस विरासत में आंध्र प्रदेश का योगदान अत्यंत उल्लेखनीय है। संस्कृति के विकास में लोक कलाओं की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। आंध्र प्रदेश के अलग-अलग प्रांतों में अनेक लोक-कलाएं प्रचलित हैं। इन लोक कलाओं को तीन वर्गों संगीत, नृत्य और रूपक में बांटा गया है।
उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में लगभग 150 लोक कला रूप विद्यमान हैं। कलाओं के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रवाह दक्षिण भारत में जारी रखने का प्रयास कलाकारों ने किया। इसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में रामायण, महाभारत, भागवत जैसे महान ग्रंथों की रचना करने इस संस्कृति को अक्षुण्ण रखने का प्रयास इस प्रांत के साहित्यकारों ने किया। उन्होंने राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, महादेव गोविंग रंगड़े, स्वामी विवेकानंद का परिचय देते हुए कहा कि इन महापुरुषों के कारण समाज में नवचेतना उत्पन्न हुई। इनके प्रभाव से तेलुगु प्रान्त मेें क्रांतिकारी समाज सुधार की लहरें बहने लगीं।
संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और आगामी व्याख्यान जो प्रत्येक शनिवार को सायं 4 से 5 बजे तक प्रसारित किया जाएगा, उससे जुड़ने की अपील करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।