Friday, November 22, 2024
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संस्कृति को केवल भावनाओं तक सीमित न रखें: इन्दुमति काटदरे

by Newz Dex
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‘शिक्षा का संस्कृति से नाता’ विषय पर व्याख्यान आयोजित

न्यूज डेक्स संवाददाता

कुरुक्षेत्र, 7 नवम्बर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘शिक्षा का संस्कृति से नाता’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में सुविख्यात शिक्षाविद् एवं पुनरुत्थान विद्यापीठ की कुलाधिपति सुश्री इन्दुमति काटदरे मुख्य-वक्ता रहीं। संस्थान के सचिव अवनीश भटनागर एवं वि.भा. अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के संगठन मंत्री जे.एम.काशीपति भी मुख्य रूप से उपस्थित रहे।

संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए बताया कि इन्दुमति काटदरे पुनरुत्थान विद्यापीठ की कुलाधिपति हैं। वे अनेक वर्षों तक एक महाविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत रहीं। विद्या भारती से सम्पर्क स्थापित होने के पश्चात उन्होंने प्राध्यापक पद से त्याग पत्र देकर अपना जीवन पूर्णकालिक प्रचारिका के रूप में शिक्षा क्षेत्र को समर्पित कर दिया। राष्ट्रीय विद्वत् परिषद की अखिल भारतीय संयोजक एवं शिशु वाटिका मार्गदर्शक का दायित्व जैसे अनेक दायित्व उनके पास रहे। वे एक कुशल वक्ता के साथ कुशल लेखिका भी हैं। उनके द्वारा शिशु वाटिका से सम्बन्धित पर्याप्त पुस्तिकाओं का प्रकाशन भी हुआ है।


विषय की प्रस्तावना रखते हुए अवनीश भटनागर ने कहा कि शिक्षा और संस्कृति दो अलग-अलग विचार नहीं हैं। हम ज्ञान के विचार को सार्वभौमिक मानते हैं। अर्थात् वह किसी देशकाल के अधीन नहीं होता। ज्ञानार्जन की इस प्रक्रिया के अंतर्गत शिक्षा माध्यम के रूप में काम करती है। शिक्षा रूपी माध्यम में यदि शिक्षा रूपी राष्ट्रीयता का भाव नहीं हुआ तो शिक्षा असंगत हो जाती है। उन्होंने कहा कि संस्कृति का विचार, संस्कृति के प्रति गौरवभाव का विचार शिक्षा और जो केवल विद्यालय कक्षाकक्ष में केंद्रित नहीं होती, वह परिवार में भी होती है, समाज में भी होती है, वह हमारे विभिन्न धार्मिक, सामाजिक केन्द्रों और कार्यक्रमों में भी होती है, उन सबको साथ लेते हुए किस प्रकार से शिक्षा और संस्कृति के बीच अन्योन्याश्रित संबंध को हम एक साथ जोड़कर समझ सकते हैं, इस विचार को समझना अत्यंत आवश्यक है।

सुश्री इन्दुमति काटदरे ने कहा कि संस्कृति को केवल भावनाओं तक सीमित न रखें। संस्कृति का मूल शब्द ही ‘कृति’ है और कृति व्यवहार व व्यवस्था में दिखनी चाहिए। विद्यालय की व्यवस्थाओं में संस्कृति दिखाई दे इसके लिए केवल महापुरुषों के चित्र और वचन लगाना पर्याप्त नहीं है। व्यवस्था की दृष्टि से भोजन करने के लिए बैठना, भोजन बनाने की व्यवस्था, नीचे बैठकर पढ़ने की आवश्यकता, इस पर विचार कर सकते हैं क्या? क्योंकि पढ़ने वाला बैठेगा और पढ़ाने वाला खड़ा रहेगा, ऐसा ठीक नहीं है। अध्यापक को ऊंचे आसन पर बैठने की व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है। कम से कम छोटे बच्चों को ऐसे संस्कार देने अत्यंत आवश्यक हैं।

उन्होंने कहा कि शिक्षा का सम्बन्ध पाठ्यक्रम से नहीं और न ही डिग्री आदि से है वरन् शिक्षा संस्कृति का बहुत बड़ा माध्यम है। धर्म का बहुत बड़ा माध्यम है। संस्कृति धर्म का अनुसरण करती है और शिक्षा संस्कृति को सिखाती है। इसलिए सूत्र रूप में कहा जा सकता है शिक्षा हमेशा धर्मानुसारिणी होती है। शिक्षा हमेशा संस्कृति को सिखाने वाली होती है। जो धर्म और संस्कृति सिखाए, वही शिक्षा है। संस्कृति शब्द को समझाते हुए उन्होंने कहा कि हम पहले अंग्रेजी में संस्कृति को कल्चर कहते हैं और फिर कल्चर को जिस रूप में समझा जाता है, उस रूप में संस्कृति को समझते हैं। इसलिए संस्कृति शब्द का ठीक अर्थ नहीं ले पाते। उन्होंने कहा कि कला संस्कृति का एक आयाम है क्योंकि जीवन का सारा सौंदर्यबोध, जीवन की सारी रसानुभूति कला के रूप में अभिव्यक्त होती है इसलिए कला संस्कृति का एक आयाम तो हो सकता है परन्तु सर्वार्थ में संस्कृति का अर्थ वह नहीं है।

संस्कृति ‘कृति’ के चार आयामों व्यवस्था, व्यवहार, वातावरण और मानसिकता पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि आज हमारी व्यवस्थाओं में चाहे वह व्यक्तिगत जीवन की हो या राष्ट्रीय जीवन की हो, हमारी संस्कृति का आधार नहीं रहा है। उन्होंने कहा कि संस्कृति शब्द को सही अर्थ में न लेने के कारण संस्कृति का अर्थ भी प्रदर्शन और स्पर्धा का ही हो जाता है। यह सार्थक संस्कारों की शिक्षा है, यह सार्थक मूल्य शिक्षा है। उसमें स्पर्धा होने के कारण बाधाएं आती हैं। भगवद्गीता की स्पर्धा करने को उन्होंने इसे सटीक अर्थों में समझाया। उन्होंने कहा कि संस्कृति के मूल तत्व हैं जीवन को देखने की दृष्टि। एकात्मता और आत्मीयता यह हमारे सम्बन्धों का मूल सूत्र हैं।

व्याख्यान के अंत में विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के संगठन सचिव जे.एम. काशीपति का आशीर्वचन प्राप्त हुआ। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और आगामी व्याख्यान जो प्रत्येक शनिवार को सायं 4 से 5 बजे तक प्रसारित किया जाएगा, उससे जुड़ने की अपील करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।

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