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अब सोनीपत में ट्रेजडी किंग के ताजा बोल
हरियाणा की व्यवस्था ठीक नहीं मानते बीरेंद्र सिंह,उनके लिहाज से यहां शिक्षा,सुरक्षा और स्वास्थ्य का स्तर ठीक नहीं
बीरेंद्र का कहना जेजेपी से गठबंधन चुनावी नहीं है,सरकार चलाने का है,अगर गठबंधन ने चुनाव लड़ा तो भाजपा की कमजोरी साबित होगी
उनका मानना 10 साल भाजपा का सत्ता में रहकर भी बैसाखी को पकड़ना,कमजोरी को जाहिर करेगा
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में बीरेंद्र सिंह डूमरखां को वो मिला, जो कांग्रेस में 42 साल की राजनीति में हासिल ना हुआ
करीब एक दशक से भाजपा के वरिष्ठ नेता बीरेंद्र को नजर आ रही है कई खामियां,कैसे दूर करेंगे,जींद रैली में कर सकते हैं घोषणा
बीरेंद्र को लगता है कि भाजपा सरकार अगर किसान हितैषी होती तो एक साल दिल्ली बार्डर पर संघर्ष नहीं करना पड़ता
राजेश शांडिल्य
चंडीगढ़। सर छोटू राम का नाती किसका साथी ? वर्तमान सियासी माहौल में बीरेंद्र सिंह डूमरखां के लिए बात एक एकदम सटीक दिखती है। एक जमाने में नारा गूंजता था कि छोटू राम का नाती, राजीव गांधी का साथी…यकीनन वह दौर अलग था। तब राजनीति के ट्रेजडी किंग के इतने शेड सामने नहीं थे।तब वे जन्मजात कांग्रेसी थे,इससे पहले वह किसी अलग कांग्रेस (तिवारी कांग्रेस) का हिस्सा भी नहीं रहे थे,क्योंकि तिवारी कांग्रेस अस्तित्व में नहीं आई थी। तब तक उनकी पहचान वरिष्ठ भाजपा नेता की भी नहीं थी। भाजपा से उनका सिर्फ विरोध का नाता था। उस दौर में आम आदमी पार्टी भी नहीं थी,तो उनके मंच पर जाने और अपना राजनीतिक विचार मंच सजाने का भी सवाल नहीं उठा। सियासत के लंबे सफर में भले बीरेंद्र मुंहफट नेता के रुप में उभरे हों,मगर कोई शक नहीं कि काजल की कोठरी कही जाने वाली राजनीति में बीरेंद्र सिंह डूमरखां का आधी सदी पार करने का यह सफर उजला रहा।
दो बार सांसद, 5 बार विधायक चुने गए बीरेंद्र सिंह ने 1984 में हिसार लोकसभा सीट से जीत दर्ज कर पहली बार संसद की सीढ़ी चढ़ी थी। तब उन्होंने ताऊ देवीलाल के सुपुत्र हरियाणा के कद्दावर नेता ओम प्रकाश चौटाला को पराजित किया था। हालांकि इससे पहले बीरेंद्र अपनी राजनीति की शुरुआत में ही उचाना सीट से विधानसभा चुनाव की पहली जीत का इतिहास दर्ज करा चुके थे।तीन बार हरियाणा में और एक बार भाजपा सरकार में केंद्रीय मंत्री रह चुके बीरेंद्र सिंह हरियाणा के राजनेता पूर्व मंत्री नेकी राम के सुपुत्र हैं। वह 2009 में विधानसभा चुनाव हारने का दर्द भी चख चुके हैं। इस पीड़ा का निवारण कांग्रेस ने उन्हें वर्ष 2010 में राज्यसभा सदस्य बनाकर किया था। वे जींद जिला की उचाना सीट से 1977 में पहली जीत के बाद 1982, 1991, 1996 और 2005 में विधायक रहे और 2014 में उनकी सीट पर पत्नी ने भाजपा की टिकट पर जीत दर्ज की थी,जोकि 2019 में बीरेंद्र परिवार अपने विरोधी चौटाला परिवार के कारण गंवा चुका है। तब उचाना सीट से दुष्यंत चौटाला की इस जीत को चौटाला परिवार की पराजय का बदला चुकता करने के रुप में भी देखा गया था।
बीरेंद्र सिंह की राजनीति का लंबा अध्याय कांग्रेस में रहते हुए पूरे 42 वर्ष तक जुड़ा रहा और करीब एक दशक से वे भाजपा में वरिष्ठ नेता की पहचान रखते हैं। वैसे इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस में उनकी राजनीति गांधी परिवार और सर छोटू राम की पहचान के इर्द गिर्द मंडराती रही। यही कारण था कि 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद भले हरियाणा और देश में 1996 तक कांग्रेस सत्ता में रही हो, लेकिन उस दौर में गांधी परिवार की संलिप्तता हाशिये पर थी।इसी बीच प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव और हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भजनलाल के खिलाफ भीतर से खेमबंदी के बीच नारायण तिवारी की अलग कांग्रेस (तिवारी)का पदार्पण हुआ था। उसमें कांग्रेस (आई) से इतर जाकर बीरेंद्र सिंह सरीखे कुछ और नेता वो प्रमुख चेहरा बने थे जो हरियाणा में तिवारी की कांग्रेस की जड़ों को सींचने में जुट गए थे। बाद में तिवारी कांग्रेस का कांग्रेस (आई) में विलय के बाद भी खेमे बाजी परंपरा जारी रही।भजन,भूपेंद्र और बीरेंद्र के खेमे कांग्रेस की एकजुटता के नारे लगाते हुए वजूद में रहे।मगर इस बीच बीरेंद्र एक राजनेता के साथ राजनीति के ट्रेजडी किंग के रूप में पहचान धर चुके थे। उनका खेमा और एक मंच लगातार अपनी बोल बाणी से सुर्खियों में रहकर सीएम कुर्सी पर नजर गड़ाए रहा।
2004 से 2014 के बीच केंद्र में मनमोहन सिंह सरकार में उन्हें दो बार केंद्रीय मंत्री बनाने के बुलावे तो मिले,मगर अचकन पहन शपथ लेने का सपना साकार नहीं हुआ। हरियाणा में 2005 से 2014 तक सत्ता में रही कांग्रेस के शासनकाल में भी कुछ इसी तरह के हालात रहे,क्योंकि उनके समर्थक उन्हें भावी सीएम का राग तो अलापते रहे,मगर यह राग विलाप से ज्यादा कुछ सिद्ध नहीं हुआ। इसी पीड़ा का हिसाब चुकता करने के उद्देश्य से बीरेंद्र ने जन्मजात राजनीतिक दल कांग्रेस का त्याग करीब एक दशक पहले किया और तब से वे भाजपा के दत्तक नेता के रुप में जनता के मध्य हैं। हालांकि इन दस सालों में उनकी मुराद भी पूरी हुई। दरअसल, लंबे समय से केंद्र में ना जाने की टीस को दूर करने और बीरेंद्र की मुराद को पूरा करने काम मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में हुआ था। हालांकि कांग्रेस में 42 साल की राजनीति में उन्हें जो केंद्रीय मंत्री पद नहीं मिला था,वह प्रधानमंत्री मोदी के पहले कार्यकाल में सरकार बनने के तीन माह के भीतर बीरेंद्र सिंह को दे दिया था।
हरियाणा में भाजपा की पिछली सरकार में उनकी पत्नी उचाना से विधायक थी और मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में उनके पुत्र भाजपा के सांसद। यदि दुष्यंत चौटाला के मुकाबले उनकी धर्मपत्नी जीत दर्ज करतीं तो संभवतः वर्तमान हरियाणा सरकार में वह मंत्री होतीं। खैर,यह सब कुछ पाने के बावजूद बीरेंद्र सिंह पर हावी ट्रेजडी किंग किरदार अभी जिंदा है। इसका अंदाजा पार्टी लाइन से हटकर किसान आंदोलन से लेकर पहलवानों के जंतर मंतर पर संघर्ष में जाना और एक साल पहले आम आदमी पार्टी के मंच पर संबोधन से लगा। उनकी ताजा प्रतिक्रिया सोनीपत के कार्यकर्ता सम्मेलन में सामने आई है। सोनीपत के मंच पर बीरेंद्र सिंह डुमरखां ने नई पार्टी बनाने के संकेत दिए तो दिए, मगर प्रेस वार्ता में इसे नकार दिया। हालांकि यहां बीरेंद्र अपने संबोधन में कांग्रेस और भाजपा पर हमलावर नजर आए और प्रदेश की राजनीति में बड़े परिवर्तन की हुंकार भी भरी।
सोनीपत के कार्यकर्ता सम्मेलन में डूमरखां ने गांधी जयंती के दिन दो अक्तूबर 2023 को जींद में जनसभा करने और परिवर्तन की अलख जगाने की बात रखी है। यह सब कुछ तब हो रहा है,जब बीरेंद्र सिंह,उनकी पत्नी और पुत्र केंद्र और हरियाणा की भाजपा सरकार के करीब 9 साल के कार्यकाल में केंद्रीय मंत्री,सांसद और विधायक रहे। उन्हे मलाल है कि भाजपा किसान हितैषी नहीं है। अगर होती तो किसानों को एक साल तक दिल्ली बार्डर पर संघर्ष नहीं करना पड़ता। उन्होंने सोनीपत में कहा है कि दो अक्तूबर की रैली में गरीबी,बेरोजगारी,भुखमरी, भ्रष्टाचार,किसानों की संपन्नता जैसे मुद्दा उठाना चाहते हैं। यानी मौजूदा सरकार इन सभी ज्वलंत मुद्दों पर बड़ी सफलता के लिए जहां थपकी मारकर यह बताने में जुटी है कि 2024 में केंद्र और हरियाणा में हैट्रिक लगेगी,वहीं ट्रेजडी किंग के अनुसार उनके सपने अधूरे ही नहीं,चिंताजनक स्थिति में है।
बीरेंद्र सिंह मानते हैं कि हरियाणा की व्यवस्था ठीक नहीं है,यहां शिक्षा,सुरक्षा और स्वास्थ्य का स्तर ठीक नहीं है। स्वास्थ्य सेवाएं केवल शहरों तक सीमित हैं। बीरेंद्र सिंह किसानों और खिलाड़ियों के मुद्दे पर सरकार पर हमलावर दिखे थे। भाजपा और संघ के हिंदुत्व के एजेंडे से परे बीरेंद्र धर्म आधारित राजनीति पर भी सोनीपत में निशाना साधते नजर आए थे। उन्होंने कहा है यह किसी राजनीतिक दल के लिए ठीक नहीं है। वहीं दुष्यंत चौटाला और उनकी पार्टी जेजेपी के प्रति टीस भी बाहर आई। उन्होंने कहा है कि यह गठबंधन कोई चुनावी गठबंधन नहीं है। सरकार चलाने के लिए गठबंधन है। अब दस साल राज करके भाजपा को बैसाखियों की जरूरत नहीं है,अगर इसके बावजूद उन्हें जरूरत पड़ रही है तो इसका मतलब भाजपा अपने मन से स्वीकार कर रही है कि वह मजबूत नहीं है।