भारतीय शिक्षा के भविष्यदृष्टा थे लज्जाराम तोमर
राष्ट्र की आवश्यकता, विचार और जीवन पद्धति पर आधारित है भारत केन्द्रित शिक्षा
‘भारत केन्द्रित शिक्षा के मनीषी: श्री लज्जाराम तोमर’ विषय पर व्याख्यान आयोजित
न्यूज़ डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र । विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान एवं इंस्टीट्यूट ऑफ इंटीग्रेटेड एंड ऑनर्स स्टडीज, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में श्री लज्जाराम तोमर स्मृति व्याख्यान का आयोजन कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के आर.के. सदन में किया गया। व्याख्यान का विषय ‘‘भारत केन्द्रित शिक्षा के मनीषी: श्री लज्जाराम तोमर’’ रहा। कार्यक्रम में वक्ता शैक्षिक चिन्तक एवं विद्या भारती के महामंत्री अवनीश भटनागर रहे एवं अध्यक्षता राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान, कुरुक्षेत्र के निदेशक प्रो. बी.वी. रमण्णा रेड्डी ने की। मंचासीन अन्य अतिथियों में वि.भा.संस्कृति शिक्षा संस्थान के अध्यक्ष डॉ. ललित बिहारी गोस्वामी, आई.आई.एच.एस. की प्राचार्या प्रो. रीटा एवं कार्यक्रम संयोजक डॉ. रामचन्द्र तथा देसराज शर्मा उपस्थित रहे। वि.भा. संस्कृति शिक्षा संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय तथा स्वागत करते हुए कहा कि इस प्रकार की शैक्षिक विचार गोष्ठियों का आयोजन लज्जाराम तोमर जी की ही कल्पना थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जिन-जिन पहलुओं को आधार बनाया गया है, वह कल्पना तोमर के मन-मस्तिष्क में लगभग 30 वर्ष पूर्व थी, जिसका सजीव प्रमाण उनके द्वारा लिखित अनेक पुस्तकों में मिलता है। मंच संचालन दुर्ग सिंह राजपुरोहित एवं डॉ. रामचंद्र ने किया।
वक्ता अवनीश भटनागर ने कहा कि भारत केंद्रित शिक्षा पर डॉ. लज्जाराम तोमर के व्याख्यान 1980 के दशक में हमने सुने हैं। आज जिसको देश स्वीकार कर रहा है उसके बारे में 30-40 वर्ष पहले चिंतन करना, उसकी रूपरेखा प्रस्तुत करना, यह किसी विचारक, किसी चिंतक या किसी भविष्य दृष्टा का ही काम हो सकता है। यह व्याख्यान भी उन्हीं की स्मृति में किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि ज्ञान सार्वभौमिक होता है परंतु शिक्षा सदैव राष्ट्रीय होती है। राष्ट्रीयता है उस राष्ट्र की आवश्यकता, विचार, जीवन पद्धति, इस पर आधारित शिक्षा व्यवस्था उस देश की आवश्यकता होती है। भारत की संस्कृति, भारत के विचार के आधार पर जब हम बात करते हैं तो वह भारत केंद्रित शिक्षा होती है।
भारत के मनीषियों ने शिक्षा के सामने तीन उद्देश्य रखे हैं, विश्व का कल्याण, देश की प्रगति और व्यक्तित्व का विकास। व्यक्तित्व विकास माने स्मार्ट सीखना या अच्छे कपड़े पहनना या फर्राटे से अंग्रेजी बोलना नहीं अपितु व्यक्तित्व का विकास अपने से आगे बढ़कर सोचने वाला है तो यह व्यक्तित्व के विकास की पहली सीढ़ी के आधार पर देश की प्रगति की दूसरी सीढ़ी और जब सब देशों की प्रगति होगी तो स्वाभाविक रूप से आगे चलकर विश्व का कल्याण होगा। उन्होंने डॉ. राधाकृष्णन के तीन विचारों पर कहा कि प्राचीन ज्ञान का नवीन पीढ़ी को हस्तांतरण करना, नवीन ज्ञान का सृजन और जीवन में पग-पग पर आने वाली चुनौतियों के लिए तैयार करना। आज शिक्षा का उद्देश्य विद्यार्थी को, माता-पिता को, शिक्षक को स्पष्ट है क्या? दूसरा है शिक्षा का दर्शन अर्थात देश के विचार करने का ढंग और शिक्षा का विचार करने का ढंग यदि अलग-अलग होंगे तो एक दूसरे के विपरीत चलेंगे। इसलिए इस विपरीतता से कैसे बचाया जाए? मनुष्य निर्माण की शिक्षा और चरित्र निर्माण की शिक्षा आज हम दे पा रहे हैं क्या? उन्होंने कहा कि भारतीय शिक्षा का दर्शन मूलतः है अध्यात्म केंद्रित है। उन्होंने योग की अवधारणा के पंचकोशों को भी विस्तार से समझाया।
अध्यक्षीय उद्बोधन में एनआईटी के निदेशक प्रो. बी.वी.रमण्णा रेड्डी ने कहा कि प्रत्येक विषय में अध्यापन के समय भारतीय ज्ञान को विषय के साथ कैसे पढ़ाया जाए, इस पर एनआईटी में विशेष बल दिया गया है। मैकाले की 50 वर्ष पुरानी शिक्षा प्रणाली को बदल कर अब राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति को अपनाने की नितान्त आवश्यकता है। उन्होंने कहा कि देश की प्रगति के लिए छात्रों में व्यक्तित्व विकास के साथ-साथ आध्यात्मिक विकास भी अत्यंत आवश्यक है। इन्हें अपनाकर अध्यापकों को स्वयं पहल करनी होगी और छात्रों के समक्ष रोल मॉडल भी बनना होगा तभी आने वाली पीढ़ी भारतीय ज्ञान प्रणाली को आत्मसात कर पाएगी।
कार्यक्रम की प्रस्तावना रखते हुए देसराज शर्मा ने कहा कि किसी भी कार्यक्रम की यह मूल धारणा बनती है कि हम अपने जीवन के अंदर जो हम दूसरे में देखना चाहते हैं पहले उसमें अपने प्रयोग के लिए देखते हैं। जिस मनीषी के नाम पर यह व्याख्यान है उन्होंने अपने जीवन को इसी तरह से जीया है। केवल जीया नहीं है, इस जीवन जैसे कई जीवन खड़े किए हैं। कार्यक्रम के अंत में संस्थान के सहसचिव डॉ. पंकज शर्मा ने अतिथियों एवं आगंतुकों का धन्यवाद ज्ञापित किया।
इस अवसर पर अनेक संस्थाओं से प्रतिनिधियों उपस्थित रहे, जिनमें विद्या भारती से मा. यतीन्द्र जी, ब्रह्माजी राव, शिवकुमार, सुरेंद्र अत्री, वासुदेव प्रजापति, अवधेश पाण्डे, बालकिशन जी, विजय नड्डा, कुवि से डॉ. हुकम सिंह, डॉ. जितेन्द्र, नारायण सिंह, अनिल कुलश्रेष्ठ सहित नगर के अनेकों विद्यालयों से प्राचार्य, अध्यापक एवं गणमान्य जन उपस्थित रहे।
यह है भारत में सीखने-सिखाने की पद्धति
अवनीश भटनागर ने सीखने की प्रक्रिया के 8 पदों का उल्लेख करते हुए कहा कि पहला है प्रवचन, दूसरा है प्राश्निकता अर्थात प्रश्न पूछ कर सीखना, तीसरा है स्व-अवलोकन से सीखना, चौथा है प्रयोग करके सीखना, पांचवां है परिशीलन करना अर्थात अन्य स्रोतों से जानकारी करना, छठा है अन्य स्थानों पर जाकर परिशीलन के बाद परिष्कार करना, सातवां है परिष्कार के आधार पर अपने प्रयत्न से उसको सिद्ध करना और आठवां है जो सीखा उसे दूसरों को सिखाना। यह भारत में सीखने सिखाने की पद्धति है।
भविष्य दृष्टा थे लज्जाराम तोमर
लज्जाराम तोमर लगभग 40 वर्ष पूर्व ही आज की राष्ट्रीय शिक्षा की कल्पना से सराबोर रहे, तभी उन्होंने अपने शिक्षकत्व के समय विद्यालयों में अनेक नवाचार प्रयोग किए और भारतीय चिन्तन के आधार पर अपनी कल्पना से अनेकों पुस्तकें लिखीं जिनमें ‘भारतीय शिक्षा के मूल तत्व’, ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति’, ‘विद्या भारती चिन्तन की दिशा’, ‘नैतिक शिक्षा’, विद्या भारती की अभिनव पंचपदी शिक्षण पद्धति’, ‘शैक्षिक चिन्तन’, ‘भारतीय शिक्षा मनोविज्ञान के आधार’, ‘परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण क्यों और कैसे?’, ‘बोध कथाएँ’ इत्यादि हैं।