‘भारतीय संस्कृति का विश्वव्यापी स्वरूप’ विषय पर व्याख्यान आयोजित
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 21 नवंबर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘भारतीय संस्कृति का विश्वव्यापी स्वरूप’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के राजनीति विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर पवन शर्मा मुख्य वक्ता रहे। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए बताया कि भारत की विश्व को क्या देन है तथा उसके बल पर भारत कैसे विश्व गुरुत्व प्राप्त कर सकता है, इस दृष्टि से प्रो. पवन शर्मा 400 से अध्कि व्याख्यान दे चुके हैं। इसके अतिरिक्त वे एकात्म मानवदर्शन एवं विद्या व्यवस्था से ही विश्व में परिवर्तन संभव, इस दृष्टिकोण से चिंतन, मनन, एवं लेखन में सन्नद्ध हैं।
डॉ. रामेन्द्र सिंह ने कहा कि विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर प्रयत्नशील है। वर्तमान कोरोनाकाल में भी संस्थान ऑनलाइन साप्ताहिक व्याख्यानमाला के रूप में संस्कृति बोध एवं भारतीय संस्कृति के महत्वपूर्ण घटकों को वक्ताओं के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा है। संस्थान के सचिव अवनीश भटनागर ने विषय की प्रस्तावना रखते हुए कहा कि भारतीय संस्कृति ही विश्वव्यापिनी है। यह हम लोगों के लिए विश्वास करने का विषय है। यह विश्वास भावनात्मक आधार पर नहीं वरन् तथ्यात्मक आधार पर है। हम सभ्यता और संस्कृति में भेद नहीं करते, दोनों को समानार्थी समझ लेते हैं। हम सिन्धु घाटी सभ्यता कहते हैं और जब संस्कृति का विषय आता है तो वैदिक संस्कृति कहते हैं।
उन्होंने कहा कि भारत केवल भौगोलिक परिदृश्य की दृष्टि से भारत नहीं है बल्कि सांस्कृतिक मूल्यों के आधार पर संस्कृति जीवन दर्शन से जुड़ी होती है, जीवन के प्रति दृष्टि कैसी है, उससे जुड़ी होती है। विनोबा जी के शब्दों में कहें तो जीवन, जगत और जगदीश्वर को देखने की किसी समाज की दृष्टि कैसी होती है, वह उसकी संस्कृति है। इसलिए संस्कृति का स्वरूप हमें दुनियाभर में देखने को मिलता है।
प्रो. पवन शर्मा ने कहा कि भारतीय संस्कृति ने प्रत्येक प्रकार से न केवल पश्चिम को, न केवल दक्षिण एशिया को, न केवल दक्षिण पूर्वी एशिया को बल्कि संपूर्ण विश्व को अनुप्राणित किया है। भारत के पास संपूर्ण विश्व ज्ञान प्राप्त करने के लिए आता था, यह भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य था। पश्चिम ने नानाविध भारत से सीखने की कोशिश की लेकिन उससे विश्व का कल्याण भी हो सकता है, यह उन्होंने सीखने का प्रयास नहीं किया। पश्चिम ने न केवल भारत से विज्ञान सीखा बल्कि भाषाओं की समृद्धि भी सीखी। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में जो वैज्ञानिक अविष्कार हो सकते थे, उसका आधार भी यहां से प्राप्त किया।
प्रो. शर्मा ने कहा कि पश्चिम का विज्ञान भारत से बहुत अधिक प्रभावित है। उन्होंने विलियम जोंस द्वारा अपने साहित्य में लिखित प्रमाणित संदर्भ बताते हुए कहा कि पश्चिम में न्यूटन के द्वारा जो ज्ञान हमें प्राप्त हुआ है, उस ज्ञान पर अभी पूरा गर्व करने का समय नहीं आया क्योंकि अभी सूर्य सिद्धांत का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं हुआ है। यह अनुवाद हो जाए और फिर उसकी न्यूटन से तुलना कर लें तो ध्यान में आएगा कि न्यूटन का ज्ञान ज्यादा श्रेष्ठ है या सूर्य सिद्धांत में उपलब्ध ज्ञान ज्यादा श्रेष्ठ है।
उन्होंने संस्कृत भाषा के लिए 20वीं शताब्दी के विद्वान डॉ. रामनिवास शर्मा के साहित्य को उद्धृत करते हुए कहा कि पश्चिम की कोई भी भाषा भारत की संस्कृत भाषा से प्रभावित और अनुप्राणित है। विलियम जोंस भी इसी बात का प्रमाण करते हुए अपने साहित्य में लिखते हैं कि ईरान प्राचीन भारत में संस्कृति का बड़ा केंद्र था और भारत का उसके साथ गहन संबंध था। भारत को वैश्विक दृष्टिकोण से देखें तो ऋग्वेद में सामान्यतः कर्मकाण्ड से संबंधित बातें उपलब्ध हैं। लेकिन जिन्होंने ऋग्वेद का अध्ययन, अनुशीलन, अनुसंधान किया है तो उनके ध्यान में तीन प्रकार के समाजों का उल्लेख आता है। पहला भारतीय समाज व्यवसायिक समाज है, दूसरा भारतीय समाज कृषि समाज है, तीसरा भारतीय समाज औद्योगिक समाज है। यह तीनों बातें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पूरे पश्चिम का ज्ञान तीनों बातों के आधार पर संवर्द्धित, संरक्षित और प्रचारित-प्रसारित हो रहा है।
उन्होंने कहा कि भारत की संस्कृति ने अपने को अद्यतन करना जारी रखा, इसलिए इसे सनातन संस्कृति भी कहा जाता है। सनातन का अभिप्राय है जो नित-नूतन होते हुए अपना संबंध पुरातनता के साथ बनाए रखती है। विलियम जोंस द्वारा कही गई बातों को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि भाषा के संबंध में ईरान प्राचीन काल में भारतीय संस्कृति का बड़ा केंद्र रहा है। इतना ही नहीं फारसी भाषा के 10 शब्दों में से सात शब्दांे की धातुएं या तो संस्कृत से प्रभावित हैं या संस्कृत मूल की ही हैं। इसलिए फारसी और संस्कृत का घनिष्ठ संबंध है।
प्रो. पवन शर्मा ने कहा कि भारतीय संस्कृति लम्बे समय तक न केवल व्यापारिक दृष्टिकोण से बल्कि सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी विश्व को आच्छादित करती रही है। मैडीशियन की पुस्तक ‘मिलेनियम पर्सपैक्टिव’ का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्होंने 1000 वर्ष का इतिहास पुस्तक में समेटा है। अंग्रेजों के आने के पूर्व तक 18वीं शताब्दी के अंतिम दिनों तक भारत का वैश्विक व्यापार में सहभागिता 28 प्रतिशत थी जबकि चीन की 23 प्रतिशत थी। दोनों देश विश्व व्यापार में 51 प्रतिशत सहभागिता करते थे। बाद में ब्रिटिशर्स ने अपनी नीतियों के माध्यम से न केवल भारत का बल्कि भारतीय संस्कृति के व्याप को भी अवरुद्ध किया।
संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और आगामी व्याख्यान जो प्रत्येक शनिवार को सायं 4 से 5 बजे तक प्रसारित किया जाएगा, उससे जुड़ने की अपील करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।