भारत की ज्ञान सम्पदा का कोई मुकाबला नहीं: प्रो. जे.एस. राजपूत
‘संस्कृति से जुड़ी भविष्योन्मुखी शिक्षा’ विषय पर व्याख्यान आयोजित
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 12 दिसंबर। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘संस्कृति से जुड़ी भविष्योन्मुखी शिक्षा’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में मुख्य-वक्ता राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद के पूर्व निदेशक पद्मश्री प्रो. जे.एस. राजपूत थे। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने अतिथि परिचय कराते हुए बताया कि प्रो. जे.एस. राजपूत विशेष रूप से स्कूली शिक्षा और शिक्षक प्रशिक्षण में अपने अनुभव सिद्ध योगदान के लिये जाने जाते हैं। केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2018 में यूनेस्को (संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन) के कार्यकारी बोर्ड में भारत के प्रतिनिधि के तौर पर उन्हें नामित किया गया।
शिक्षा के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान के लिए प्रो. राजपूत को मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महर्षि वेदव्यास पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उन्होंने बताया कि विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा आयोजित यह 25वां व्याख्यान है। अब तक के व्याख्यानों को हजारों व्यक्तियों ने श्रवण एवं प्रतिभागिता कर ज्ञानार्जन किया है। मुख्य-वक्ता प्रो. जे.एस. राजपूत ने कहा कि सृजनात्मकता और जिज्ञासा जहां होगी, वहां नवाचार भी होगा और शिक्षा व्यवस्था यदि उसे उत्साहित करे, उसके रास्ते में बाधा न बने तो निश्चित रूप से व्यक्ति और व्यक्तित्व दोनों की प्रगति होगी। प्रो. राजपूत ने कहा कि अध्यापक का व्यक्तित्व विकास कहां और कैसे हुआ है, यह उस देश के शिक्षक-प्रशिक्षक संस्थान पर निर्भर करता है।
अध्यापक की गुणवत्ता इस पर निर्भर करेगी कि शिक्षक-प्रशिक्षक संस्थान कैसे कार्य कर रहे हैं। अध्यापकों का सही प्रशिक्षण न होने पर निश्चित रूप से शिक्षा की गुणवत्ता नहीं बढ़ेगी। इन चुनौतियों का समाधान इस शिक्षा नीति में किया गया है। इसे क्रियान्वित करने की जिन पर जिम्मेवारी है, उनके सामने बड़ी चुनौती है और इसे अधिक परिश्रम से करना होगा।
उन्होंने कहा कि पाठ्यक्रम का निर्माण करना आसान कार्य नहीं है। हर अध्यापक पाठ्यक्रम निर्माता है। किसी भी अध्यापक में पाठ्यक्रम में स्थानीयता को जोड़ने की क्षमता विकसित होनी ही चाहिए। जब यह क्षमता विकसित हो जाती है तो निश्चित रूप से शिक्षा की उपयोगिता और समाज में उसकी स्वीकार्यता बढ़ जाती है।
उन्होंने कहा कि हमारे शिक्षा दर्शन, ज्ञान परंपरा से जो निकला है, उसे स्वामी विवेकानंद, रविन्द्रनाथ टैगोर, अरबिंदो, महात्मा गांधी बार-बार दोहराते रहे। लेकिन 1947, 1950 में इसकी ओर ध्यान नहीं दिया। हमने निरंतरता कायम रखी। एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो उस समय प्रचलन में थी, जिसे हट जाना चाहिए था, उसी का अनुसरण करते गए। स्कूल और विश्वविद्यालय बहुत खोले गए, लेकिन वह व्यवस्था चरमरा गई है, इसे स्वीकार करना चाहिए। जब कोई व्यवस्था चरमराती है जो सबसे अधिक हानि गुणवत्ता की होती है। इस गुणवत्ता की कमी हमारी शिक्षा व्यवस्था में भी आ गई है, जिसे बदलकर अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2000 में सृजनात्मकता और जिज्ञासा पर बल दिया गया है। उन्होंने स्वामी विवेकानंद द्वारा दिए गए सद्विचार जोकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति को परिपूर्ण करते हैं, उन्हें उद्धृत किया।
उन्होंने कहा कि रचनात्मकता, विचार, कल्पना और जिज्ञासा किसी बच्चे में इन चारों को प्रस्फुटित होने देते हैं, ऐसा होने में उसका सहयोग करते हैं तो निश्चित रूप से देश की बौद्धिक क्षमता कई गुणा बढ़ जाती है। इस विषय को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अच्छे ढंग से विश्लेषित कर सम्मिलित किया है कि भारत अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करे और आगे चलकर वैश्विक स्तर पर भी अपनी उपस्थिति का आगाज कराए। हमारे देश में हर बच्चे को अच्छी गुणवत्तायुक्त शिक्षा उपलब्ध हो जाए, हरेक को अवसर उपलब्ध हों तो निश्चित रूप से भारत की ज्ञान संपदा से कोई मुकाबला नहीं कर पाएगा। ज्ञान संपदा से ही भौतिक संपदा सीधे जुड़ी हुई है। जी.डी.पी. का भी आधार एवं स्रोत एक ही है, वह है आपकी ज्ञानार्जन परंपरा कितनी सशक्त है, कितनी विस्तृत और गतिशील है। कितनी भविष्य की समझ उसमें है और कितना भूतकाल के लिए उसके मन में श्रद्धा और सम्मान है। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और आगामी व्याख्यान जो प्रत्येक शनिवार को सायं 4 से 5 बजे तक प्रसारित किया जाएगा, उससे जुड़ने की अपील करते हुए सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।