दर्शकों की कसौटी पर पास हुई 12 वीं फेल और करोड़ों के धंधे के लिए गंदगी का रायता फैलाती एनिमल सरीखी फिल्में
69 वें फिल्म फेयर अवार्ड्स में जलवा बिखेरती 12 वीं फेल से क्या सीख लेंगे टारगेट आडियंसजीवी
साभारः विमर्श एवं ट्रू मीडिया में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार राजेश शांडिल्य का लेख
एनडी हिंस्दुस्तान
चंडीगढ़। वो विज्ञापन याद होगा आपको,जिसमें पूछा जाता था कहीं आपके टूथपेस्ट में नमक तो नहीं है…। फिर इस बगैर नमक वाले टूथपेस्ट ने 100 करोड़ के कल्ब वाली फिल्मों की तरह रिकार्ड तोड़ने शुरु किए।जैसे भारत में टारगेटजीवी सिनेमा की घटिया फिल्में कभी 100 करोड़ तो कभी 200 करोड़ और कई बार उससे भी ज्यादा का धंधा कर लेती है।वैसे ही बगैर नमक वाला टूथपेस्ट हाथों हाथ बिका।
एक दशक पहले के इसी तरह के विज्ञापनों की बदौलत बगैर नमक वाला टूथपेस्ट घर घर पहुंचा। उत्पाद निर्माताओं ने खूब चांदी काटी।मगर इस बीच स्वदेशी वालों ने खेल बिगाड़ दिया और बताया टूथपेस्ट में नमक का महत्व।अब हमारा बड़ा वर्ग ठहरा गाय जैसा। अब गाय को घास में आटा डाल कर खिलाओ या बगैर आटा,उस निरीह जीव ने तो उदर पूर्ति को जुगाली करते हुए उसे डकार ही लेना है।
अब इंसान तो इंसान है,फिर चाहे उसे कोई गाय बोल दे…लिहाजा स्वदेशी की बात समझ चौकन्ना हो गए। उनके टूथपेस्ट की जुगाली में अब स्वदेशी वालों के नमक का महत्व पल्ले पड़ चुका था। इन्होंने नमक वाला दंत मंजन रगड़ना शुरु किया।फिर उसे दांतों पर इतना रगड़ा कि बगैर नमक वालों के टूथपेस्ट का धंधा मंदा पड़ गया। उन्होंने भी फिर बिना देरी किए टूथपेस्ट में नमक डाला और ब्रांडिंग में ग्राहकों को बताया कि उनके टूथपेस्ट में भी नमक है।
खैर,स्वदेशी और गैर स्वदेशी ब्रांड के दंत मंजन में नमक का फार्मूला तो सफल हो गया और बालीवुड की फिल्म 12 वीं फेल भी दर्शकों की कसौटी पर पास हो गई।अब इसी तरह भारतीय दर्शकों को समझना होगा कि मनोरंजन के नाम पर जो जहर सिनेमा के जरिए फैलाया जा रहा,उसके दुष्परिणाम मीडिया रिपोर्ट्स में कई बार सामने आ चुके हैं। मगर भारत में लंबे समय से टारगेट आडियंस वाले सिनेमा का ताना बाना जारी है।उनमें भट्ट कैंप इकलौता नहीं है।फिल्म इंडस्ट्री में इस तरह के कई कैंप हैं,जिनका लाइट, कैमरा, एक्शन सामाजिक सरोकार से परे इंटरटेनमेंट, इंटरटेनमेंट और सिर्फ इंटरटेनमेंट के लिए पर टिका है।
इन्हें आप टारगेट आडियंसजीवी भी कह सकते हैं,जिनका बेहतर सिनेमा से कोई नाता नहीं है,अपने धंधे के लिए समाज में उत्तेजना फैलाना इनका असल मकसद है। 69 वें फिल्म फेयर अवार्ड्स में 12 वीं फेल सरीखी फिल्में यह संदेश देती रहती हैं कि भारत में बेहतर सिनेमा वेंटीलेटर पर नहीं,बल्कि स्वस्थ है और सांस ले रहा है। अब इंतजार इस बात का है कि टारगेट आडियंस के लिए फिल्में बनाने वाले बेहतर सिनेमा से पिछड़ कर इसे बेशक कारोबार के लिए ही सही, इसे अपना लें।
पिछले करीब एक दशक से इसी तरह का बीड़ा उठाया है भारतीय चित्र साधना ने,ताकि भारतीय सिनेमा में स्वस्थ मनोरंजन के साथ राष्ट्रवाद,नैतिक शिक्षा,समाजिक सरोकार,जागरूकता,समरसता,पर्यावरण,भविष्य का भारत जन जातीय समाज,ग्राम विकास,वसुधैव कुटुंबकम और भारत के गौरव का बोध हो। फिल्मों के माध्यम से अश्लीलता,उत्तेजना,आपराधिक पात्रों को नायक के रूप में गढ़ने का चलन और भौंडे मनोरंजन जैसे विषय सभ्य समाज को चिंतित करते है। और यह सब रहा है अधिक धन अर्जित करने के लोभ में।
इस विषय पर चुनिंदा चिंतनशील बुद्धिजीवियों ने इस तरह के सिनेमा से निपटने के उद्देश्य से भारतीय चित्र साधना नामक संस्था की स्थापना करीब एक दशक पहले की थी।चित्र साधना का घोषित उद्देश्य है कि स्वस्थ मनोरंजन और समाज घातक हंसी ठठे में भेद का विवेक आमजन में तैयार हो। इसी के साथ अच्छी सामाजिक उत्थान का विचार देने वाले सिनेमा का निर्माण करने के लिए युवाओं को प्रेरित करने एवं प्रशिक्षण की व्यवस्था तैयार हो।