डेरा उदासीन में 530वें प्रकाशोत्सव के उपलक्ष्य में हुआ धार्मिक समागम व भंडारा
न्यूज़ डेक्स संवाददाता
शाहाबाद । देश-विदेशों में सनातन धर्म का प्रचार करने वाले भगवान श्रीचंद्र देव जी के 530 वें प्रकटोत्सव समारोह के अवसर पर डेरा उदासीन देवी तालाब मंदिर लाडवा रोड पर भंडारा लगाया गया। डेरा के महंत तरणदास ने बताया कि समारोह में संत महात्माओं ने अपनी दिव्य वाणी से संगत को निहाल किया। जिसमें बाबा श्रीचंद्र देव जी की दिव्य वाणी मात्रा शास्त्र के पाठ, आरती, सनातनी अरदास प्रार्थना और प्रसाद वितरण किया गया। महंत तरणदास ने कहा कि उदासीन आचार्य शिव अवतार जगत गुरु श्रीचंद्र देव ने देश-विदेश में सनातन संस्कृति का प्रचार किया। भगवान श्रीचंद्र देव ने अपने जीवन के 151 वर्ष समाज की सेवा व धर्म की रक्षा के लिए लगाए। उनसे बड़ा त्यागी, तपस्वी इस धरती पर नहीं हुआ। उदासीन गुरू परंपरा में बाबा श्रीचंद्र का 165वां स्थान है। उदासीन संप्रदाय का प्रचार प्रसार गुरुनानक नंदन शिव स्वरूप श्रीचंद्र महाराज द्वारा किया गया। उन्होंने तिब्बत, कश्मीर, सिंध, काबुल, कंधार, बलूचीस्तान, अफगानिस्तान, गुजरात, पुरी व कटक से लेकर विश्व के कोने-कोने में संत सतातन संस्कृति के वास्तविक स्वरूप से लोगों को रूबरू कराया। साधु-संतों व कथावाचकों द्वारा भजन, सत्संग, आरती, कीर्तन व प्रवचन से संगत को निहाल किया गया। महंत दीपक प्रकाश ने कहा कि प्रत्येक वर्ष डेरा प्रकाश पर्व को भव्य रूप देने के लिए प्रयासरत है। सालाना भंडारे को भव्य बनाने के लिए संस्था लगातार प्रयास कर रही है। सैकड़ों लोगों ने भंडारे में पहुंच कर बाबा श्रीचंद्र मंदिर में माथा टेका। इस अवसर पर महामंडलेश्वर गोपी संगरिया, महंत रूद्र पुरी, महंत विजय गिरी हेलवा, महंत राम दत्त गिरी, मंहत भीम पुरी, महंत सर्वेश्वरी गिरी, संत अराधना नंद बाईजी, संत साधनानंद बाईजी, महंत ईश्वर दास शास्त्री कैथल, महंत महावीर दास, अरविंद दास, महंत चंद्रप्रकाश, महंत छवि राम दास, हरीश कवातरा, गुलशन कवातरा, पूर्व नपा प्रधान बलदेवराज चावला, पूर्व प्रधान डा. सुरेंद्र शर्मा, पूर्व पार्षद ललित भार्गव, आशीष चक्रपाणि, सुरेंद्र ढींगरा पप्पू, नीरज सैनी, एडवोकेट एसडी मुरार, डीपी दस्तूर, विभु दर्शन मुरार, पूर्व प्रधान सुदर्शन कक्कड़, बलदेव राज कालड़ा, महंत जसपाल दास पटियाला, महंत दीपक प्रकाश, महंत चंद्र प्रकाश, शिव कुमार काका आदि उपस्थित थे।
महंत तरण दास ने बताया कि उदासीनाचार्य जगदगुरु श्रीचन्द्र देव जी का प्रादुर्भाव जन्मोत्सव भाद्रपद शुक्ल पक्ष की नवमी संवत 1551 को हुआ था। चन्द्र देव जी का जन्म लाहौर की खड़गपुर तहसील के तलवंडी नामक स्थान में श्रीगुरु नानकदेव जी की पत्नी सुलक्षणा देवी के घर हुआ था। इनका जन्म निवृत्ति प्रधान सनातन धर्म के प्रचारक एवं पुनरुद्धार के लिए हुआ था। इनके जन्म से ही सिर पर जटाएं, शरीर पर भस्म तथा दाहिने कान में कुंडल शोभित था। इनके भस्म विभूषित विग्रह को देखकर दर्शनार्थी आपको शिवस्वरूप मानकर श्रद्धा से पूजते थे। आचार्य श्रीचन्द्र देव जी बचपन से ही वैराग्य वृत्तियों से युक्त थे। ऋद्धि-सिद्धियाँ उनके हाथ जोड़े हुए सेवा में सदैव तत्पर रहती थीं। जब वे 11 वर्ष के हुए तब उनका पंडित हरिदयाल शर्मा के द्वारा यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हुआ। आचार्य श्रीचन्द्रदेव जी वैदिक कर्मकाण्ड के पूर्ण समर्थक थे। उन्होंने ज्ञान-भक्ति के श्रेष्ठ सिद्धांत को प्रतिपादित किया। उन्होंने करामाती फकीरों, सूफी संतों, अघोरी तांत्रिकों और विधर्मियों को अपनी अलौकिक सिद्धियों और उपदेशों से प्रभावित कर वैदिक धर्म की दीक्षा भी दी थी। आपने उस समय के परम ज्ञानी वेदवेत्ता विद्वान, कुलभूषण, कश्मीर मुकुटमणि पंडित श्री पुरुषोत्तम कौल जी से वेद-वेदांग और शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। अद्वितीय प्रतिभा के सम्पन्न होने के कारण आपने बहुत ही कम समय में सारी विधाएं आत्मसाध कर ली थीं। आपने भगवान बुद्ध की तरह
लोकभाषा में उपदेश दिया था। भाष्यकार आदि गुरु शंकराचार्य जी की तरह वेदों का भाष्य किया तथा कबीर आदि संतों की तरह वाणी साहित्य की रचना भी की थी। ब्रह्माडम्बर, मिथ्याचार अवैदिक मत-मतान्तरों, पाखंडों का खंडन कर श्रुति-स्मृति सम्मत आचार-विचार की प्रतिष्ठा की। भावात्मक एवं वैचारिक धरातल पर जीव मात्र की एकता का प्रतिपादन किया। जाति-पांति, ऊँच-नीच, छोटे-बड़े के भेदभाव को समाप्त कर मानव मात्र को मुक्ति की राह दिखाई थी। उनका उदघोष था चेतहु नगरी, तारहु गाँव अलख पुरुष का सिमरहु नांव।।
धूणे के रूप में वैदिक यज्ञोपासना को नया रूप दिया तथा निर्वाण साधुओं के रहने का आदर्श प्रतिपादित कर निवृत्ति प्रधान धर्म की प्रतिष्ठा की। भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए शैव, वैष्णव, शाक्त, सौर तथा गणपत्य मतावलंबियों को संगठित कर पंचदेवोपासना की प्रतिष्ठा की। हिन्दू धर्म की महिमा समझार्इ। वैचारिक वाद-विवाद को मिटाकर सत्य सनातन धर्म को समन्वय का विराट सूत्र प्रदान किया। उन्होनें कहा-“”निर्वैर संध्या दर्शन छापा वाद-विवाद मिटावै आपा। शिव रूप होकर आज भी भक्तों और श्रद्धालु आसितकों की मनोकामनाओं को पूर्ण करते हैं। 150 वर्षों तक धराधाम पर रहकर अंतिम क्षणों में ब्रह्राकेतु जी को उपदेश दिया और रावी में शिला पर बैठकर पार गये तथा चम्बा नामक जंगल में विक्रमी संवत 1700 पौष मास कृष्ण पंचमी को अंर्तध्यान हो गए।