शिरोमणि रविदास की 648 वीं जयंती के उपलक्ष्य में मातृभूमि सेवा मिशन के तत्वावधान में मातृभूमि शिक्षा मंदिर द्वारा संत संवाद कार्यक्रम संपन्न
एनडी हिन्दुस्तान
कुरुक्षेत्र । संत रविदास का जन्म भारत में जिस काल में हुआ उस समय समाज का स्वरूप अत्यंत विक्षुब्ध, अशांत और संघर्षमय था। आतताइयों के आक्रमण के कारण समाज किंकर्तव्यविमूढ़ स्थिति में था। छोटी-छोटी रियासतों में विभक्त भारतीय रियासतें मिथ्या दंभ और अभिमान में एक-दूसरे से युद्ध कर रही थीं। जर्जर सामाजिक ढांचा रूढ़ियों, प्रथाओं, अंधविश्वासों, मिथ्या आचरणों, आडंबरों और पाखंडों से सराबोर था। छुआछूत और अस्पृश्यता के वैज्ञानिक और औचित्यहीन अभिशाप का टीका समाज के माथे पर अमिट स्याही से लगाया गया था। जहां आपसी विभेद, वर्ग भेद, जाति भेद, गैर बराबरी, सामाजिक न्याय और अंतः संघर्ष की पराकाष्ठा समाज की सेहत को प्रदूषित कर रही थी। ऐसी विषम स्थिति में प्रबुद्ध संत शिरोमणि रविदास द्वारा पुनर्जागरण का सजीव आंदोलन प्रारंभ हुआ। यह विचार संत शिरोमणि रविदास की 648 वीं जयंती के उपलक्ष्य में मातृभूमि शिक्षा मंदिर द्वारा आयोजित संत संवाद कार्यक्रम में मातृभूमि सेवा मिशन के संस्थापक डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने व्यक्त किये। कार्यक्रम का शुभारम्भ मातृभूमि शिक्षा मंदिर के विद्यार्थियों द्वारा संत शिरोमणि रविदास के चित्र पर दीप प्रज्ज्वलन,माल्यार्पण एवं लोकमंगल की प्रार्थना से किया।मातृभूमि शिक्षा मंदिर के बच्चों ने विभिन्न विधाओं में सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किया।
विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने कहा
सामाजिक समरसता के आध्यात्मिक उपासक संत शिरोमणि रविदास जी का जीवन, संघर्षों और चुनौतियों की महागाथा है। जहां उन्हें जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत पग-पग पर प्रताड़ना, यातना, अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा और हेय दृष्टि का व्यवहार अनुभूत हुआ। विभिन्न प्रकार की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक निर्योग्यताओं से संघर्ष करते हुए संत रविदास ने मानवीय गरिमा को सही अर्थों में समझा और अस्पृश्य समाज को समझाते हुए कहा कि तुम हिंदू जाति के अभिन्न अंग हो, तुम्हें शोषित, पीड़ित और दलित जीवन जीने की अपेक्षा मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत रहना चाहिए।संत रविदास ने धर्म अथवा साधना की कोई शास्त्रीय व्याख्या प्रस्तुत नहीं की किंतु सामाजिक व्यवस्था को विकृत करने वाले छुआछूत, ऊंच-नीच, भेदभाव, अन्याय, शोषण और अनाचार का प्रबल विरोध करते हुए मूल्यहीन परंपराओं की कटु आलोचना की।
डा. श्रीप्रकाश मिश्र ने संत रविदास के जीवन पर प्रकाश डालते कहा रविदास जी ने समाज की प्रगति और समरसता को अवरुद्ध करने वाली अस्पृश्यता की विकृति, जिसका कोई शास्त्रीय आधार नहीं है, विनम्रतापूर्वक विरोध कर समतावादी समाज की स्थापना पर बल दिया। संत रविदास ने तत्कालीन सामाजिक समस्याओं का व्यावहारिक समाधान उन्मुक्त भाव से व्यक्त करते हुए किसी संप्रदाय का विरोध नहीं किया। वरन उनकी अंतरात्मा को जागृत कर पारस्परिक सद्भाव और बंधुत्व का संदेश दिया।
संत रविदास का जन्म वाराणसी में संवत 1456 को एक निर्धन चर्मकार परिवार में हुआ था। रविदास जी बचपन से ही आध्यात्मिक और उदार प्रवृत्ति के थे। परोपकार की निर्मल भावनाओं के पक्षधर रविदास जी कहते थे कि सामर्थ्य वाले लोगों को अपनी संपदा में दूसरे अभाव ग्रस्तों को भी भागीदार बनाना चाहिए अन्यथा संग्रह किया हुआ अनावश्यक धन, संपत्ति का रूप धारण कर लेता है। वे प्रतिदिन अपने हाथ से बनाए एक जोड़े जूते जरूरतमंदों को बिना किसी भेदभाव के दान किया करते थे। कार्यक्रम का संचालन बाबूराम एवं आभार ज्ञापन सुरेंद्र ने किया। कार्यक्रम का समापन शांति पाठ से हुआ।