‘‘शिक्षा और संस्कृति’’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन
न्यूज डेक्स संवाददाता
कुरुक्षेत्र, 30 जनवरी। विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान द्वारा ‘‘शिक्षा और संस्कृति’’ विषय पर व्याख्यान का आयोजन किया गया। व्याख्यान में मुख्य वक्ता डॉ. चंद्रपाल शर्मा, पूर्व विभागाध्यक्ष हिन्दी विभाग, मेरठ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध महाविद्यालय रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी भाषाविद एवं हरियाणा ग्रंथ अकादमी के पूर्व निदेशक प्रो. विजय दत्त शर्मा ने की। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने मुख्य वक्ता का परिचय कराते हुए बताया कि जिला बुलंदशहर की सांस्कृतिक गंध से परिपूर्ण भूमि में जन्मे तथा शिक्षा-संस्कार ग्रहण करने वाली विभूति डॉ. चंद्रपाल शर्मा की वाणी का वैचित्र्य, शिक्षा का गुरुत्व, व्यवहार की सरसता में वशीभूत करने की अथाह क्षमता है। वे शिक्षा, संस्कार एवं व्यवहार की ऐसी त्रिवेणी हैं जिसमें असंख्य मानस पुत्रों अर्थात् शिष्यों ने स्नान सुख प्राप्त किया है। उनकी 12 रचनाएं प्रकाशित हुई हैं एवं उन्हें कई सम्मानों से सम्मानित भी किया गया है। उन्होंने कहा कि विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान भारतीय संस्कृति के प्रचार-प्रसार के लिए निरंतर कार्यरत है। कोरोनाकाल में भी देशभर में संस्कृति ज्ञान परीक्षा का ऑनलाइन आयोजन करना संस्थान की विशेष उपलब्धि है।
मुख्य वक्ता डॉ. चंद्रपाल शर्मा ने कहा कि शिक्षा मां की गोद में आते ही प्रारंभ हो जाती है। वह शिक्षा ऐसी होती है जो मां से मिलती है। वह चिरस्थायी और जीवनभर के लिए होती है। पहला विद्यालय मां की गोद है तो दूसरा शिक्षक अध्यापक है। उन्होंने बालक के जन्म से लेकर बड़े होने तक के विभिन्न चरणों में संस्कारों की महत्ता बताई। उन्होंने कहा कि शिक्षा के साथ संस्कार आते हैं और संस्कार संस्कृति से आते हैं। यदि संस्कारित शिक्षा पाएंगे तो उस शिक्षा से उच्च स्तरीय विद्वान पैदा करेंगे।
उन्होंने कहा कि शिक्षा वह हो जो हमें संस्कारित करे। सबका कल्याण सोचे, केवल अपने तक निहित न हो। हमें भारतीय संस्कृति के रक्षक होने के नाते गौरवान्वित होना चाहिए।
उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति की शिक्षा ने सारे संसार को एक साथ बांधा है। हमारी सभ्यता और संस्कृति की इतनी महानता थी कि बड़े-बड़े विकसित राष्ट्र भी हमारी शिक्षा का मुकाबला नहीं कर पाए। हम पढ़े-लिखें हों या न हों, हमें संस्कृति से जो शिक्षा मिली, वह अनमोल है। भारतीय संस्कृति हमें मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव का बोध तो कराती ही है, साथ ही यदि घर पर कोई अतिथि आ जाए तो उसे भी हम अतिथि देवो भव कहते हैं।
डॉ. चंद्रपाल शर्मा ने कहा कि स्वतंत्रता के पश्चात जिस प्रकार की शिक्षा व्यवस्था देश में आई, उसमें संस्कृति और संस्कार का अभाव था। यदि हमने संस्कृति का ज्ञान किया होता तो हमारी शिक्षा हमें संस्कार सिखाती। उन्होंने कहा कि सौभाग्य से हम उस देश, उस पुण्यभूमि में जन्मे हैं जहां हम उस समय सभ्य एवं संस्कारित थे, जब संसार के अन्य क्षेत्रों में रहने वाले व्यक्ति संस्कार या शिक्षा को जानते भी नहीं थे। यह उस शिक्षा का प्रभाव था जो आचरण से मिलता है। आचरण जितना बड़ा हमारा शिक्षक है, उतना बड़ा और कोई नहीं।
हमारी शिक्षा यदि संस्कृति आधारित है तो वह हितकारी रहेगी। वही हमारा कल्याण करेगी। तभी हम ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिनः…’’ और सारे संसार के कल्याण की कामना कर सकते हैं क्योंकि हम सब में राम देखते हैं। सबमें उस प्राण तत्व देखते हैं जो परमात्मा का है। उन्होंने कहा कि कितने ही लोग ऐसे हैं जो दूसरे के परमाणु जैसे गुण को भी पर्वत के समान बढ़ा देते हैं और अपने हृदय में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। और हमने सिखाया कि शत्रु के गुणों का भी वर्णन करना चाहिए। यही भारतीय संस्कृति की महत्ता है।
प्रो. विजय दत्त शर्मा ने कहा कि आज हमारी शिक्षा पद्धति में जिस तत्व का अभाव है वह शिक्षा को भिक्षा की तरफ धकेल रहा है। उस संस्कृति की अवधारणा, संकल्पना, प्रासंगिकता एवं अपरिहार्यता को जिन शब्द, तर्कों, तथ्यों से डॉ. चंद्रपाल शर्मा ने स्पष्ट किया है वह हमारी शिक्षा पद्धति को चेतन शिक्षा पद्धति में रूपांतरित करने के लिए रामबाण सिद्ध हो सकती है। डॉ. शर्मा के शिक्षा-संस्कृति चिंतन में राष्ट्रीय अस्मिता की अभिव्यक्ति, सुरक्षा, विस्तार, परिष्कार के स्वर झंकृत होते दिखाई दिए हैं। उन्होंने कहा कि मेरा अनेक वर्षों का औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षण अनुभव होते हुए भी डॉ. शर्मा के वक्तव्य ने मेरा शिष्यत्व भाव जगा दिया है। भारतीय ज्ञान-व्यवहार परंपरा का निर्वाह उनकी संतति एवं शिक्षा संस्कृति की सेवा स्वयं सिद्ध है। संस्थान के निदेशक डॉ. रामेन्द्र सिंह ने वक्ता एवं देशभर से जुड़े सभी श्रोताओं का धन्यवाद किया और सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना के साथ व्याख्यान का समापन हुआ।